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________________ महाबन्ध कुन्दकुन्द स्वामी ने 'भावपाहुड' में कहा है "अंगाई दस य दुण्णिय चउदस-पुव्वाई सयलसुयणाणं। पढिओ अ भव्वसेणो ण भाव-सवणत्तणं पत्तो ॥"-भावपाहुड, गा. ५२ भव्यसेन मुनि ने बारह अंग तथा चौदह पूर्व रूप सकल श्रुतज्ञान को पढ़ा था, फिर भी वे अन्तरंग से श्रमणपने को-भावलिंगी मुनिपने को नहीं प्राप्त हुए। "तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य। णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ ॥" -भावपाहुड, गा. ५३ निर्मल परिणाम मुक्त तथा महान् प्रभाव वाले शिवभूति मुनिराज ने 'तुष माष' भिन्न-दाल और छिलका जैसे पृथक् हैं, इस प्रकार मेरा आत्मा भी कर्मरूपी छिलके से जुदा है-इस पद को स्मरण करते हुए केवलज्ञान पाया था। इसका यह अर्थ नहीं है कि शास्त्र का अभ्यास व्यर्थ है। उसका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है; किन्तु ऐसा नहीं है कि ज्ञानावरण के उदयवश मन्दज्ञानी, किन्तु विशुद्धचारित्र व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिले। सम्यक् चारित्र से समलंकत मन्दज्ञानी भी कैवल्यश्री का स्वामी होता है। मोह का क्षय अत्यन्त आवश्यक है। उसके साथ में आवश्यक अल्पज्ञान भी अद्भुत शक्तियुक्त हो जाता है। तार्किक समन्तभद्र अपने युक्तिवाद-द्वारा इस समस्या को सुलझाते हुए कहते हैं "अज्ञानान्मोहिनो बन्धो न ज्ञानाद्वीतमोहतः। ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ॥" -आप्तमीमांसा, कारिका., ६८ -'मोहविशिष्ट अर्थात मिथ्यात्वयुक्त व्यक्ति के अज्ञान से बन्ध होता है। मोहरहित व्यक्ति के ज्ञान से बन्ध नहीं होता है। मोहरहित अल्प ज्ञान से मोक्ष होता है। मोही के ज्ञान से बन्ध होता है।' ___ यहाँ बन्ध का अन्वयव्यतिरेक ज्ञान की न्यूनाधिकता के साथ नहीं है। इससे ज्ञान को बन्ध या मुक्ति का कारण नहीं माना जा सकता। मोहसहित ज्ञान बन्ध का कारण है और मोहरहित ज्ञान मुक्ति का कारण है। अतः यह बात प्रमाणित होती है कि बन्ध का कारण मोहयुक्त अज्ञान है और मुक्ति का कारण मोहका अभाव युक्त ज्ञान है; क्योंकि इसके साथ ही अन्वयव्यतिरेक सुघटित होता है। शंका-यहाँ यह आशंका सहज उत्पन्न होती है कि इस कथन का सूत्रसार उमास्वामी के इस सूत्र के साथ विरुद्धता है-“मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः”-(८,१)-तत्त्वका अनवबोध, असंयम, असावधानता, क्रोध, मान, लोभ, तथा मन, वचन, कायकी चंचलता के द्वारा बन्ध होता है। समाधान-इस विषय का समाधान करते हुए विद्यानन्दिस्वामी कहते हैं (अष्टसह.पृ. २६७) -मोहविशिष्ट अज्ञान में संक्षेप में मिथ्यादर्शन आदि का संग्रह किया गया है। इष्ट अनिष्ट फल प्रदान करने में समर्थ-कर्म बन्ध का हेतु कषायैकार्थसमवायी अज्ञान के अविनाभावी मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग को कहा गया है। मोह और अज्ञान में मिथ्यात्व आदि का समावेश हो जाता है। दोनों आ के कथन में तात्त्विक भेद नहीं है; केवल प्रतिपादनशैली की भिन्नता है। एकान्तदर्शनों में कर्म सिद्धान्त का असम्भवपन स्वामी समन्तभद्र का कथन है कि यह कर्म बन्ध की व्यवस्था स्याद्वाद शासन में ही निर्दोष रीति से बनती है। एकान्त दर्शनों में कर्मबन्ध, फलानुभवन आदि बातें असम्भव हैं। वे कहते हैं-हे जिनेन्द्र! १. “कुशलाऽकुशलं कर्म परलोकश्च न क्वचित।। एकान्तग्रहरक्तेषु नाथ स्वपरवैरिषु ॥"-आप्तमीमांसा, का. ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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