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________________ प्रस्तावना ६६ अनित्यैकान्त आदि सिद्धान्तवादियों के यहाँ पुण्य कर्म, पाप कर्म, परलोक सिद्ध नहीं होते। एकान्तग्रहाविष्ट लोग अनेकान्त पक्ष के विरोधी तो हैं ही, साथ ही वे स्वपक्ष के भी घातक हैं। नित्यैकान्त अथवा अनित्यैकान्त पक्ष में क्रम तथा अक्रमपूर्वक अर्थक्रिया नहीं बनती। अर्थक्रियाकारित्वपने के अभाव में पुण्य-पाप बन्धादि की व्यवस्था भी नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ, बौद्धदर्शन में कर्म की मान्यता है-यह स्थविर नागसेन और सम्राट् मिलिन्द के पूर्व प्रतिपादित प्रश्नोत्तर से ज्ञात होता है; किन्तु बौद्धदर्शन के सर्व क्षणिकवाद तत्त्व के साथ उस कथानक का सामंजस्य नहीं होता। बात यह है कि क्षणिक पक्ष में प्रत्येक पदार्थ क्षणस्थितिशील है, अतः उसमें कर्मों का बन्धन और फलोपभोग आदि की बातें क्षणिकत्व सिद्धान्त के विरुद्ध पड़ती हैं। हिंसादि पापों का कर्ता अकुशल कर्म का सम्पादन तथा फलानुभवन नहीं करेगा, कारण उसका हिंसादि कार्य क्षण में क्षय हो गया, अतः फलोपभोक्ता अन्य व्यक्ति होगा। क्षणिक पक्ष में वस्तु तथा लोकव्यवस्था नहीं बनती। - इसे आप्तमीमांसाकार इस प्रकार समझाते हैं - "हिंसाका संकल्प करनेवाला द्वितीय क्षण में नष्ट हो चुका, अतः संकल्पविहीन व्यक्ति ने हिंसा की, ऐसा कहना होगा। हिंसक व्यक्ति का भी उत्तर क्षण में विनाश हो गया, इससे हिंसनकार्य के फलस्वरूप पीड़ा प्राप्त करने वाला और बन्धन में फँसने वाला ऐसा व्यक्ति होगा, जिसने न तो हिंसा का संकल्प किया और न हिंसा ही की है। इसी न्याय के अनुसार बन्धनबद्ध व्यक्ति तो नष्ट हो गया, मुक्ति प्राप्तकर्ता दूसरा ही होगा।" सूक्ष्म दृष्टि से विचारने पर इस प्रकार की विचित्र स्थिति और अव्यवस्था क्षणिकैकान्त पक्ष में उत्पन्न होती है। क्षण-क्षण में पदार्थों का सर्वथा नाश स्वीकार करने पर किसी प्रकार की नैतिक जिम्मेदारी भी नहीं होगी। किये गये कर्मों का नाश और अकृत कर्मों का फलोपभोग होगा, ऐसे सिद्धान्त में कर्मबन्ध व्यवस्था नहीं बन सकती। नित्यैकान्त में दोष एकान्त नित्य पक्ष अंगीकार करने पर क्रियाशीलता का अभाव होगा। अतः देश-क्रम का कारण देशान्तर गमन नहीं होगा। शाश्वतिक होने से कालक्रम नहीं बनेगा। सकल कालकलाव्यापी वस्तुको विशेष काल में स्थित मानने पर नित्यत्व का विरोध होगा। कदाचित् सहकारी कारण की अपेक्षा वस्तु में क्रम मानते हो, तो यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि सहकारी कारण उस पदार्थ में कुछ विशेषता उत्पन्न करते हैं या नहीं? यदि उसमें विशेषता की उत्पत्ति मानते हो तो नित्यत्व का एकान्त नहीं रहता है। यदि नित्य वस्तु में विशेषता उत्पन्न किये बिना भी सहकारी कारणों के द्वारा क्रम मानते हो, तो यह क्रमतत्त्व सहकारियों में ही रहेगा। दूसरी बात यह है कि नित्य वस्तु में देशक्रम, कालक्रम नहीं पाया जाता। नित्य पदार्थ में युगपद् अर्थक्रियांकारित्व मानने पर एक ही समय में समस्त कार्यों की उत्पत्ति हो जाएगी और द्वितीय क्षण में क्रिया के अभाव में अवस्तुत्व हो जाएगा। अतः नित्यैकान्त पक्ष में अर्थक्रिया का अभाव होने से कर्मबन्ध की व्यवस्था भी नहीं बनती। ऐसी स्थिति में सांख्यादिकों की कर्ममान्यता उनकी मनोनीत सत्कार्यवाद रूप तत्त्व-व्यवस्था आदि के प्रतिकूल सिद्ध होती है। १. "हिनस्त्यनभिसन्धातृ न हिनस्त्यभिसन्धिमत्। बध्यते तद्वयोपेतं चित्तं बद्धं न मुच्यते ॥" -आप्तमीमांसा, का., ५१ २. प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्तवान मातृघाती स्वपतिः स्वजाया। दत्तग्रहो नाधिगतस्मृतिर्न न वत्वार्थ-सत्यं न कुलं न जातिः ॥ युक्त्यनुशासन, १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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