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महाबन्ध
अद्वैत मान्यता में बाधा
अद्वैत पक्ष मानने पर कर्मव्यवस्था नहीं बनती।' लौकिक-वैदिक कर्म, कुशल-अकुशल कर्म, पुण्य-पाप कर्म आदि को स्वीकार करने पर अद्वैत मान्यता पर वज्रपात होता है। अविद्या के कारण कर्मद्वैत मानना भी युक्तिसंगत नहीं है; कारण ऐसी स्थिति में विद्या, अविद्या का द्वैत उपस्थित होगा। स्वामी समन्तभद्र का (आप्तमी. २६, २७) कथन है कि द्वैत के बिना अद्वैत नहीं बनता; जैसे हेतु के अभाव में अहेतु नहीं पाया जाता है। प्रतिषेध्यके बिना संज्ञावान् पदार्थ का प्रतिषेध नहीं किया जा सकता। उनकी एक सुन्दर तथा सरल युक्ति है। यदि युक्ति से अद्वैततत्त्व मानते हो, तो साधन और साध्य का द्वैत उपस्थित होता है। कदाचित् अपने वचनमात्र से अद्वैत को प्रमाणित करते हो, तो इस पद्धति से द्वैत पक्ष भी क्यों नहीं सिद्ध किया जा सकता है? अतः प्रमाण एवं युक्तिविरुद्ध अद्वैत की एकान्त मान्यता में कर्मसिद्धान्त सिद्ध नहीं होता।
___ अनेकान्त शासन में ही समीचीन रूप से कर्म-बन्ध व्यवस्था सिद्ध होती है। एकान्तवादी अपनी दार्शनिक मान्यता के आधार पर कर्म-व्यवस्था को प्रमाणित नहीं कर सकते।
कर्मसिद्धान्त का अतिरेक
___ कर्मसिद्धान्त का अतिरेक भी इष्ट साधक नहीं है। इसके अतिरेकवश मनुष्य दैव के नाम पर अकर्मण्यता का आश्रय लेकर अपने विकास के मार्ग को अवरुद्ध करता है। कर्म को ही सब कुछ समझनेवाला कहता है-“यदत्र लिखितं भाले तस्थितस्यापि जायते” जो भाल में लिखा है वह उद्यम न करने पर भी प्राप्त हुए बिना न रहेगा। पौरुष करने में शक्ति लगाना व्यर्थ है-'विधिरेव शरणम्' भाग्य ही का भरोसा है; इस प्रकार दैवैकान्त के चक्र में फँसे हुए व्यक्ति प्रलाप करते हैं। स्वामी समन्तभद्र कहते हैं-“दैव से ही यदि प्रयोजन सिद्ध होता है, तो यह बताओ, जीव के प्रयत्न के द्वारा, दैव की उत्पत्ति क्यों होती है? आज जो हमारा पुरुषार्थ है, भावी जीवन के लिए वह दैव बन जाता है। पूर्वकृत कर्म को छोड़कर दैव और क्या
है?"
___यदि दैव के द्वारा दैव की उत्पत्ति मानते हो और उसमें बुद्धिपूर्वक किये गये मानव प्रयत्नों का तनिक भी हस्तक्षेप नहीं मानते, तो मोक्ष की प्राप्ति सम्भव न होगी; क्योंकि पूर्वकृत कर्मबन्ध के अनुसार ही आगामी कर्म का बन्ध होगा; इस प्रकार की परम्परा चलने से मोक्ष का अवसर नहीं मिलेगा और पौरुष अकार्यकारी ठहरेगा।
दैवैकान्त की दुर्बलता से लाभ उठाते हुए पुरुषार्थवादी कहता है-बिना पौरुष के कोई कार्य नहीं बनता। सोमदेवसूरि के शब्दों में वह कहता है
“येषां बाहुबलं नास्ति, येषां नास्ति मनोबलम् ।
तेषां चन्द्रबलं देव! किं कुर्यादम्बरस्थितम् ॥”-यशस्तिलक, ३,५४ जिनकी भुजाओं में बल नहीं है और न जिनके पास मनोबल है, ऐसे व्यक्तियों का आकाश में स्थित चन्द्रबल-जन्मकालीन नक्षत्र आदि की स्थिति क्या करेगी?"
केवल भाग्य को ही भगवान माननेवाले पुरुषों का कृषि आदि कार्य, कोई अर्थ नहीं रखता है।
१. “कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतं च नो भवेत्।
विद्याऽविद्याद्वयं न स्याद्बन्धमोक्षद्वयं तथा ॥" -आप्तमीमांसा, का. ३५ २. “दैवादेवार्थसिद्धिश्चेदैवं पौरुषतः कथम् । दैवतश्चेदनिर्मोक्षः पौरुषं निष्फलं भवेत् ॥"-आप्तमीमांसा, का. ८८
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