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प्रस्तावना
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पुरुषार्थ का एकान्त भी बाधित है
पुरुषार्थ के अनन्य भक्त से स्वामी समन्तभद्र पूछते हैं यदि पुरुषार्थ से ही तुम कार्य सिद्धि मानते हो तो यह बताओ, दैव से तुम्हारा पुरुषार्थ कैसे उत्पन्न होता है? कदाचित् यह मानो कि हम सब कुछ पुरुषार्थ के द्वारा ही सम्पन्न करते हैं, तब सम्पूर्ण प्राणियों का पुरुषार्थ जयश्री समन्वित होना चाहिए। कर्म का तीव्र उदय आने पर पुरुषार्थ कार्यकारी नहीं होता है। समान पुरुषार्थ करते हुए भी पूर्वकृत कर्मोदयानुसार फल में भिन्नता पायी जाती है। समान श्रम करनेवाले किसान दैववश एक समान फसल नहीं काट पाते हैं।
समन्वय पथ
___ इस दैव और पुरुषार्थ के द्वन्द्व में अनेकान्त समन्वय शैली-द्वारा मैत्री स्थापित करता है। सोमदेवसूरि कहते हैं-“इस लोक में फल प्राप्ति दैव-पूर्वोपार्जित कर्म तथा मानुषकर्म-पुरुषार्थ इन दोनों के अधीन है। ऐसा न मानने वालों से आचार्य पूछते हैं कि क्या कारण है, समान चेष्टा करनेवालों के फलों में-सिद्धि में भिन्नता प्राप्त होती है? ।” आचार्य कहते हैं
“परस्परोपकारेण जीवितौषधयोरिव।
दैवपौरुषयोवृत्तिः फलजन्मनि मन्यताम् ॥” –यशस्तिलक, ३, ६३ जैसे औषधि जीवन के लिए हितप्रद है और आयुकर्म औषधि के प्रभाव के लिए आवश्यक है, अर्थात् जैसे फलोत्पत्ति में आयुकर्म और औषधिसेवन परस्पर में एक-दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं, उसी प्रकार दैव और पौरुष की वृत्ति समझना चाहिए।
वे कहते हैं- 'दैव चक्षु आदि इन्द्रियों के अगोचर अतीन्द्रिय आत्मा से सम्बन्धित है और प्राणियों की सम्पूर्ण क्रियाएँ पुरुषार्थपर निर्भर हैं, इसलिए उद्यम की ओर ध्यान रहना चाहिए।
सत्परामर्श-'आत्मानुशासन' में भव्य प्राणी को यह सत्परामर्श दिया गया है कि वह वर्तमान जीवन को सुखी बनाने के लिए जो अधिक श्रम उठाता है, वह अच्छा नहीं है। उसे उज्ज्वल भविष्य निर्माण के क्षेत्र में विशेष प्रयत्नशील होना चाहिए। वर्तमान जीवन तो अतीत के पुरुषार्थ का पुरस्कार है जो दैव के नाम से वर्तमान में माना जाता है। भदन्त गुणभद्र के महत्त्वपूर्ण शब्द इस प्रकार हैं
"आयुः श्रीवपुरादिकं यदि भवेत्पुण्यं पुरोपार्जितं स्यात् सर्वं न भवेन्न तच्च नितरामायासितेऽप्यात्मनि। इत्यार्याः सुविचार्य कार्यकुशलाः कार्येऽत्र मन्दोधमा
द्रागागामिभवार्थमेव सततं प्रीत्या यतन्तेतराम् ॥"-आत्मानुशासन, श्लोक ३७ -यदि पूर्व में संचित पुण्य पास में है, तो दीर्घ जीवन, धन तथा शरीर, सम्पत्ति आदि मनोवांछित पदार्थ प्राप्त हो सकते हैं। यदि वह पुण्य नहीं है, तो स्वयं को अपार कष्ट देने पर भी वह सामग्री प्राप्त नहीं हो सकती। अतएव उचित-अनुचित का सम्यक् रूप से विचार करने में प्रवीण श्रेष्ठजन भावी जीवन निर्माण के विषय में शीघ्र ही प्रीतिपूर्वक विशेष प्रयत्न करते हैं तथा इस लोक के कार्यों के विषय में उद्यम नहीं करते।
कोई-कोई प्रमादी मानवोचित पुरुषार्थ करने से जी चुराते हुए भाग्य का अथवा नियति (Destiny) का
१. “पौरुषादेव सिद्धिश्चेत् पौरुषं दैवतः कथम् । पौरुषाच्चेदमोघं स्यात् सर्वप्राणिषु पौरुषम् ॥"-आप्तमीमांसा, का. ८६ २. “दैवं च मानुषं कर्म लोकस्यास्य फलाप्तिषु । कुतोऽन्यथा विचित्राणि फलानि समचेष्टिषु ॥"-यशस्तिलक, ३, ६० ३. "तथापि पौरुषायत्ताः सत्त्वानां सकलाः क्रियाः। अतस्तच्चिन्त्यमन्यत्र का चिन्तातीन्द्रिन्यात्मनि ॥"
-यशस्तिलक, ३, ६४
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