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महाबन्ध
आश्रय लेकर अपने मिथ्या पक्ष को उचित बताने का प्रयत्न करते हैं। वे लोग कहते हैं कि जिस समय जैसा होना है, उस समय वैसा ही होगा। नियति के विधान को बदलने की किसी में समार्थ्य नहीं है। उसका उल्लंघन नहीं हो सकता। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने ऐसे भीरुतापूर्ण भावों को मिथ्यात्वका भेद नियतिवाद कहा है
"जत्तु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्त तदा।
तेण तहा तस्स हवे इदि वादो णियदिवादी हूँ ॥-गो. कर्मकाण्ड, गा. ८८२ जो जिस काल में जिसके द्वारा जैसे जिसके नियम से होता है, वह उस काल में उससे उस प्रकार उसके होता है। इस प्रकार का पक्ष नियतिवाद है।
विवेकी व्यक्ति आत्मशक्ति, जिनेन्द्रभक्ति तथा जिनागम की देशना का आश्रय लेकर अपना जीवन संयम तथा सदाचार समलंकृत बनाता हुआ, दैव का दास न बनकर अपने भविष्य का निर्माता बनता है। जो दैव या नियति आदि की ओट में पाप से चिपके रहते हैं, वे अपने नरजन्म रूपी चिन्तामणि रत्न को समुद्र में फेंक देते हैं।
समन्तभद्र स्वामी इस सम्बन्ध में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन करते हैं-अबुद्धि पूर्वक इष्ट-अनिष्ट कार्य अपने दैव की प्रधानता से होता है। बुद्धिपूर्वक इष्ट-अनिष्ट फल प्राप्ति में पौरुष की प्रधानता है।
सोते हुए व्यक्ति का सर्प से स्पर्श होते हुए भी मृत्यु न होने में दैव की प्रधानता है। लेकिन सर्प देखकर बुद्धिपूर्वक आत्मरक्षा करने में पुरुषार्थ की विशेषता कारण है।
भोगी प्राणी दैव और पुरुषार्थ के महोदधि को मथकर अमृत के स्थान पर विष निकालकर सोचता है और तदनुसार निःसंकोच हो प्रवृत्ति भी करता है। वह अविवेकी मोक्ष-मार्ग के लिए दैव की ओर निहारा करता है और विषय-भोग के लिए कमर कसकर पुरुषार्थी बनता है। मुमुक्षु प्राणी विषयादिकों के विषय में पुरुषार्थ को अधिक महत्त्व नहीं देता। वह अपने पौरुष का प्रयोग कर्मजाल के काटने में करता है। तत्त्व की बात यह है कि मुमुक्षु के धर्माराधनरूप प्रयत्न से विरुद्ध कर्म भी क्षीण-शक्तियुक्त बन जाता है। इस प्रकार आत्म-विकास का मार्ग अधिक सरल और उज्ज्वल हो जाता है।
जैनशासन में यह बताया है कि रत्नत्रय रूप सच्चे पुरुषार्थ के द्वारा यह जीव अनादि काल से आगत पुरातन कर्म-पुंज को अन्तर्मुहूर्त के भीतर ही विनष्ट करने में समर्थ होता है। आत्मकल्याण के क्षेत्र में दैव या नियति का आश्रय लेकर प्रमादी तथा विषयासक्त न बनकर सत्साहस पूर्वक कर्मों को नष्ट करने के हेतु सत्प्रयत्न करते जाना चाहिए। मोक्ष पुरुषार्थी को मिलता है। वह स्वयं चतुर्थ पुरुषार्थ कहा गया है। कर्मों का विभाजन
'कर्म के स्वभाव की अपेक्षा असंख्यात भेद हैं। अनन्तानन्त प्रदेशात्मक स्कन्धों के परिणमन की अपेक्षा कर्म के अनन्त भेद होते हैं। ज्ञानावरणादि अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा भी अनन्त भेद कहे जाते हैं। इस कर्म की बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति, निकाचना रूप दस कारणात्मक अवस्थाएँ पायी जाती हैं। बन्ध की परिभाषा की जा चुकी है। उत्कर्षण करण में कर्म के अनुभाग तथा स्थिति की वृद्धि होती है। अपकर्षण में इसके विपरीत बात होती है। संक्रमण करण में एक कर्मप्रकृति का अन्य प्रकृति रूप परिणमन किया जाता है। कर्मों को उदय काल के पूर्व उदयावली
-आप्तमीमांसा, का. ६१
१. “अबुद्धिपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वदैवतः। बुद्धिपूर्वव्यपेक्षायामिष्टानिष्टं स्वपौरुषात् ॥" २. अनगारधर्मामृत पृ. ३००। ३. “बंधुक्कट्टणकरणं संकममोकटुंदीरणा सत्तं।
उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होदि पडिपयडी।"-गो. कर्मकाण्ड, गा. ४३७ ४. गो. कर्मकाण्ड, ४३८-४०
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