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प्रस्तावना
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में लाना उदीरणा करण है। कर्मों का सत्ता में रहना सत्त्व है। फलदान उदय कहलाता है। उदयावली में न आकर कर्मों की उपशान्त अवस्था उपशम है। कर्मों की ऐसी अवस्था, जिसमें उत्कर्षण, अपकर्षण करण के सिवाय उदीरणा तथा संक्रमण न हो सके, निधत्ति है। ऐसी कर्म-स्थिति, जिसमें उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण तथा अपकर्षण न हो सके, निकाचना कही जाती है।
कर्मों की इन दस अवस्थाओं पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह जीव अपने परिणामों के अनुसार कर्मों को हीनशक्ति और महान् शक्ति युक्त बना सकता है। यह उदीरणा के द्वारा उदयकाल के पूर्व भी कर्मों को उदय अवस्था में लाकर निर्जीर्ण कर सकता है। कभी कर्म शक्तिहीन बनकर निर्जरा को प्राप्त होते हैं। सार बात यह है कि जीव अपने परिणामों के अनुसार कर्मों को भिन्न रूप में परिणत कर सकता है।
कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा-"नाभुक्तं क्षीयते कर्म" यह बात जैन सिद्धान्त में सर्वथा रूप में सम्भव नहीं है। जब आत्मा में रत्नत्रय की ज्योति प्रदीप्त होती है, तब अनन्तानन्त कार्मणवर्गणाएँ बिना फल दिये हुए निर्जरा को प्राप्त हो जाती हैं। केवली भगवान् को असाता प्रकृति कुछ भी बिना फल दिये हुए साता रूप में परिणत होकर निकल जाती है। इसलिए वीतराग शासन में केवली के असाता निमित्तक आदि की पीड़ा का अभाव माना गया है।
बन्ध के प्रकार
कर्मबन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश-ये चार भेद बताये गये हैं। 'महाबन्ध' के इस प्रथम खण्ड में प्रकृतिबन्ध का विविध अनुयोग-द्वारों से वर्णन किया गया है। प्रकृति शब्द का अर्थ है-स्वभाव, जैसे गुड़ की प्रकृति मधुरता है। ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव ज्ञान का आवरण करना है। दर्शनावरण की प्रकृति दर्शन गुण को ढाँकना है। वेदनीय का स्वभाव सुख-दुःख का अनुभवन कराना है। मोहनीय का स्वभाव आत्मा के दर्शन और चारित्र गुणों को विकृत करना है। यह आत्मा के सुख गुण को भी नष्ट करता है। मनुष्यादि के भवधारण का कारण आयु कर्म है। नर-नारकादि नाम से जीव संकीर्तित होता है। इसका कारण नाम की रचनाविशेष है। उच्च या नीच शरीर में जीव को रखना गोत्र की प्रकृति है। दान-भोगादि में बाधा डालना अन्तराय कर्म की प्रकृति है।
इन आठ कर्मों के नाम के अनुसार उनकी प्रकृति कही गयी है। इन कर्मों का स्वभाव समझाने के लिए जैन आचार्यों ने निम्नलिखित उदाहरण दिये हैं। ज्ञानावरण का उदाहरण परदा है। दर्शनावरण का द्वारपाल है, कारण उसके द्वारा इष्ट दर्शन का आवरण होता है। मधुलिप्त असिधारा के समान वेदनीय कर्म है। वह मधुरता के साथ जीभ कटने का सन्ताप पैदा करती है। मोहनीय मदिरा के समान जीव को आत्म-स्मृति नहीं होने देता है। आयु कर्म काष्ठ के खाण्डा-बन्धनविशेष-द्वारा व्यक्ति को कैदी बनाने के समान है। नाम कर्म भिन्न-भिन्न शरीर आदि की रचना चित्रकार के समान किया करता है। गोत्रकर्म जीव को उच्च, नीच शरीरधारी बनाता है; जैसे कुम्भकार छोटे-बड़े बर्तन बनाता है। भण्डारी जिस प्रकार स्वामी-द्वारा स्वीकृत द्रव्य को देने में बाधा पैदा करता है, उसी प्रकार विघ्न करना अन्तराय का स्वभाव
इन आठ कर्मों के १४८ भेद कहे गये हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय कर्म जीव के क्रमशः ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व तथा अनन्त वीर्यरूप अनुजीवी गुणों को घातने के कारण घातिया कहे जाते हैं। आयु, नाम, गोत्र तथा वेदनीय को अघातिया कर्म कहा है। ये जीव के अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व तथा अव्याबाधत्व नामक प्रतिजीवी गुणों को घातते हैं।
स्थितिबन्ध उसे कहते हैं, जिसके कारण प्रत्येक कर्म के बन्धन की कालमर्यादा निश्चित होती है। कर्मों के रस प्रदान की सामर्थ्य को अनुभागबन्ध कहा है। कर्मवर्गणाओं के परमाणुओं की परिणगना को प्रदेशबन्ध कहते हैं। कहा भी है
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