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________________ १०४ महाबन्ध “स्वभावः प्रकृतिः प्रोक्ता स्थितिः कालावधारणम् । अनुभागो विपाकस्तु प्रदेशोंऽशविकल्पनम् ॥* योग के कारण प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं । कषाय के कारण कर्मों में स्थिति और अनुभाग का बन्ध होता है । कर्मकृत परिणमन पर वैज्ञानिक दृष्टि गन्धक, शोरा, तेजाब आदि के मिलने पर रासायनिक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है तथा भिन्न प्रकार के तत्त्वविशेष की उपलब्धि होती है; इसी प्रकार कर्मों का जीव के साथ सम्मेलन होने पर रासायनिक क्रिया (Chemical action) प्रारम्भ होती है और उससे अनन्त प्रकार की विचित्रताएँ जीव के भावानुसार व्यक्त हुआ करती हैं। जीव के परिणामों में वह बीज विद्यमान है जो प्रस्फुटित तथा विकसित होकर अनन्तविध विचित्रताओं को विशाल वट वृक्ष के समान दिखाता है। कोई जीव मरकर कुत्ता होता है, तो श्वान पर्याय में उत्पन्न होने के पूर्व व्यक्ति की मनोवृत्ति में श्वान वृत्ति के बीज सार रूप में संगृहीत होंगे; जिनके प्रभाव से गृहीत कार्मण-वर्गणा श्वान सम्बन्धी सामग्री ( Environment) को प्राप्त करा देगी या उस रूप परिणत होगी । आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, इसलिए उसे बाँधने वाली कार्मण वर्गणाओं का पुंज भी बहुत सूक्ष्म है। उस सूक्ष्म पुंज में अनन्त प्रकार के परिणमन प्रदर्शन की सामर्थ्य है । अणु बम में (Atom bomb) आकार की अपेक्षा अत्यन्त लघुता का दर्शन होता है, किन्तु शक्ति की अपेक्षा वह सहस्रों विशाल बमों से अधिक कार्य करता है। भौतिक विज्ञान प्रयत्न करे तो राई के दाने से भी छोटा बम बन सकता है जो संसार-भर को हिला दे । आत्मा के साथ मिली हुई कार्मण वर्गणाओं में अनन्तानन्त प्रदेश कहे गये हैं जो अभव्य जीवों से अनन्त गुणित हैं, फिर भी सूक्ष्म होने के कारण वे इन्द्रियों के अगोचर हैं। उनमें विद्यमान कर्मशक्ति (Karmicenergy) अद्भुत खेल दिखाती है। किसी जीव को निगोद, अपर्याप्तक पर्यायवाला जीव बना एक श्वास में अठारह बार शरीर-निर्माण और ध्वंस द्वारा जीवन-मरण को प्रदर्शित करती है। वह आत्मा की अनन्त ज्ञान-शक्ति को ढाँककर अक्षर के अनन्तवें भाग बना देती है। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा है "का वि अपुव्वा दीसादे पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती । केवलणाणसहाओ विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥" - पुद्गल कर्म की भी ऐसी अद्भुत सामर्थ्य है, जिसके कारण जीव का केवलज्ञान स्वभाव विनाश को प्राप्त हो गया है। उस कर्म शक्ति के कारण गाय, बैल, ऊँट आदि का आकार-प्रकार प्राप्त होता है। ऐसा कौन-सा काम है जो उस शक्ति की परिधि के बाहर हो । ज्ञानावरण के रूप में उसके द्वारा बुद्धि की हीनाधिकता का विचित्र दृश्य निर्मित होता है, लेकिन जिस प्रकार नाटक का अभिनय करानेवाला सूत्रधार होता है, जिसके संकेत के अनुसार कार्य होता है, इसी प्रकार सूत्रधारक जीव के भाव हैं। उन भावों की हीनता, उच्चता, वक्रता, सरलता, समलता, विमलता आदि पर जिन बाहा क्रियाओं का प्रभाव पड़ता है, उनसे भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्म बँधते हैं। उनका वर्णन जैन महर्षियों ने किया है जिनके अध्ययन से मानव इस बात की कल्पना कर सकता है कि उसका अतीत कैसा था, जिससे उसे वर्तमान सामग्री मिली और वर्तमान विकृत अथवा विमल जीवन के अनुसार वह अपने किस प्रकार के भविष्य का निर्माण कर सकता है। Jain Education International उदाहरणार्थ - एक व्यक्ति अत्यन्त मन्द ज्ञानी है। इसका क्या कारण है? शरीरशास्त्री तो शारीरिक कारणों के द्वारा मस्तिष्क के परमाणुओं की दुर्बलता को दोषी ठहराएगा; किन्तु कर्म सिद्धान्त का ज्ञाता कहेगा कि इस जीव ने पूर्व में जब कि इसके वर्तमान जीवन का निर्माण हो रहा था, ज्ञान को ढाँकने वाली साधन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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