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________________ प्रस्तावना १०५ सामग्री को संग्रहीत किया था। इसी प्रकार अन्य प्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर कार्यों के विषय में कर्म सिद्धान्त वाला समर्थन करेगा। कर्मों के आगमन के कारणों का स्पष्टीकरण ज्ञानावरण के कारण-ज्ञानावरण कर्म में विशेष कारण निम्नलिखित बातें बतायी गयी हैं; जैसे-निर्मल ज्ञान के प्रकाशित होने पर मन में दूषित भाव रखना, ज्ञान को छिपाना, योग्य व्यक्ति को दुर्भाववश ज्ञान प्रदान न करना, दूसरे की ज्ञान-साधना में बाधा डालना, वाणी अथवा प्रवृत्ति के द्वारा ज्ञानवान् के ज्ञान का निषेध करना, पवित्र ज्ञान में लांछन लगाना, निरादरपूर्वक ज्ञान का ग्रहण करना, ज्ञान का अभिमान तथा ज्ञानियों का अपमान, अन्याय पक्ष समर्थन में शक्ति लगाना, अनेकान्त विद्या को दूषित करनेवाला कथन करना, आदि। इस प्रकार के कार्यों से जो जीव के मलिनभाव होते हैं, उनके द्वारा इस प्रकार का मलिन कर्मपुंज गृहीत होता है जो ज्ञान के प्रकाश को ढाँकता है। दर्शनावरण के कारण-उपर्युक्त बातें दर्शन के विषय में करने से दर्शनावरण कर्म आता है। उसके अन्य भी कारण हैं; जैसे अधिक सोना, दिन में सोना, आँखों को फोड़ देना, निर्मल दृष्टि में दोष लगाना, मिथ्या मार्गवालों की प्रशंसा करना, आदि। वेदनीय के कारण-जिस असातावेदनीय के कारण जीव कष्टमय जीवन बिताता है, उसके कारण ये हैं-स्व-पर अथवा दोनों को पीड़ा पहुँचाना, शोकाकुल रहना, हृदय में दुःखी बने रहना, रुदन करना, प्राणघात करना, अनुकम्पा उत्पादक फूट-फूटकर रोना, अन्य की निन्दा और चुगली करना, जीवों पर दया न करना, अन्य को सन्ताप देना, दमन करना, विश्वासघात, कुटिल स्वभाव, हिंसापूर्ण आजीविका, साधुजनों की निन्दा करना, उन्हें सदाचार के मार्ग से डिगाना, जाल, पिंजरा आदि जीवघातक पदार्थों का निर्माण करना, अहिंसात्मक वृत्ति का विनाश करना आदि। जीव को आनन्दप्रद अवस्था प्राप्त करानेवाले सातावेदनीय के कारण ये हैं-जीवमात्र पर दया करना, सन्त जनों पर स्नेह रखना, उन्हें दान देना, प्रेमपूर्वक संयम पालन करना, विवशता में शान्त भाव से कष्टों को सहना करना, क्रोधादि का त्याग करना, जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, सत्पुरुषों की सेवा-परिचर्या, आदि। मोहनीय के कारण-मोहनीय कर्म के कारण मदोन्मत्त हो यह जीव न आत्मदर्शन कर पाता है और न सच्चे कल्याण के मार्ग में लगता है।' दर्शनमोहनीय के कारण देव, गुरु, शास्त्र तथा तत्त्वों के विषय में यह सम्यक् श्रद्धा वंचित रहता है और वैज्ञानिक दृष्टि से श्रेष्ठ और पवित्र प्रकाश को नहीं प्राप्त करता। इसके कारण ये हैं-जिनेन्द्र देव, वीतराग वाणी तथा दिगम्बर मुनिराज के प्रति काल्पनिक दोष लगाकर संसार की दृष्टि में मलिन भाव उत्पन्न करना, धर्म तथा धर्म के फलरूप श्रेष्ठ आत्माओं में पाप प्रवृत्तियों के पोषण की सामग्री को बताकर भ्रम उत्पन्न करना, मिथ्या मार्ग का प्रचार करना, आदि। चारित्रमोहनीय के कारण यह जीव अपने निज स्वरूप में स्थित न रहकर क्रोधादि विकृत अवस्था को प्राप्त करता है। क्रोधादि के तीव्र वेगवश मलिन प्रचण्ड भावों का करना, तपस्वियों की निन्दा तथा धर्म का ध्वंस करना, संयमी पुरुषों के चित्त में चंचलता उत्पन्न करने का उपाय करने से कषायों का बन्ध होता १. आत्मा को पराधीन बनाकर दुःखी बनाने में प्रमुख स्थान मोहनीय कर्म का है। मोह के कारण ज्ञान अज्ञानरूप बनता है। 'तत्त्वानुशासन' में मिथ्याज्ञान को मोह महाराज का मन्त्री कहा है“बन्धहेतुषु सर्वेषु मोहश्चक्रीति कीर्तितः । मिथ्याज्ञानं तु तस्यैव सचिवत्वमशिश्रयत ॥" -तत्त्वानुशासन, श्लोक १२ बन्ध के कारणों में मोह चक्रवर्ती कहा गया है। मिथ्याज्ञान ने सचिवरूप में उसका आश्रय लिया। . "भमाहंकारनामानौ सेनान्यौ च तत्सुतौ। यदायत्तः सुदुर्भेदो मोह-व्यूहः प्रवर्तते ॥” -तत्त्वानुशासन, श्लोक १३ उस मोह के ममकार अहंकार नाम के दो पुत्र सेनानायक हैं। उन दोनों के आधीन मोह का व्यूह-सेना का चक्र कार्य करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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