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________________ १०६ महाबन्ध है। अत्यन्त हास्य, बहुप्रलाप, दूसरे के उपहास से हास्य का पात्र बनता है। विचित्र रूप से क्रीड़ा करने से, औचित्य की सीमा का उल्लंघन करने से रति-वेदनीय का आगमन होता है। दूसरे के प्रति विद्वेष उत्पन्न करना, पापप्रवृत्ति वालों का संसर्ग करना, निन्द्य प्रवृत्ति को प्रेरणा प्रदान करना, आदि अरति प्रकृति के कारण हैं। दूसरे को दुःखी करना और दूसरे के दुःखों को देख हर्षित होना, शोक प्रकृति का कारण है। भय के द्वारा यह जीव भयभीत रहता है, उसका कारण भय के परिणाम रखना, दूसरों को डराना, सताना तथा निर्दयतापूर्ण प्रवृत्ति करना है। ग्लानिपूर्ण अवस्था का कारण जुगुप्सा प्रकृति है। पवित्र पुरुषों के योग्य आचरण की निन्दा करना, उनसे घृणा करना, आदि से यह बँधती है। स्त्रीत्व विशिष्ट स्त्रीवेद का कारण महान क्रोधी स्वभाव रखना, तीव्र मान, ईर्ष्या, मिथ्यावचन, तीव्रराग, परस्त्रीसेवन के प्रति विशेष आसक्ति रखना सम्बन्धी भावों के प्रति तीव्र अनुराग भाव है। पुरुषत्व सम्पन्न पुरुषवेद के कारण क्रोध की न्यूनता, कुटिल भावों का अभाव, लोभ तथा मान का त्याग, अल्प राग, स्वस्त्रीसन्तोष, ईर्ष्या परिणाम की मन्दता, आभूषण आदि के प्रति उपेक्षा के भाव आदि हैं, जिसके उदय से नपुंसक वेद मिलता है। उसके कारण प्रचुर प्रमाण में क्रोध, मान, माया, लोभ से दूषित परिणामों का सभाव, परस्त्रीसेवन, अत्यन्त हीन आचरण, तीव्र राग, आदि हैं। आयु के कारण-नरक आयु के कारण बहुत आरम्भ और अधिक परिग्रह, हिंसा के परिणाम, मिथ्यात्वपूर्ण आचरण, तीव्र मान तथा लोभ, दूसरे को सन्ताप पहुँचाना, सदाचार तथा शीलहीनता, काम, भोगसम्बन्धी अभिलाषा में वृद्धि, बध-बन्धन करने के भाव, मिथ्याभाषण, पापनिमित्तक आहार, सन्मार्ग में दूषण लगाना, कृष्ण लेश्या युक्त रौद्र ध्यानसहित मरण करना है। पशु पर्याय के कारण कुटिल तथा छलपूर्ण मनोवृत्ति तथा प्रवृत्ति, अधर्म प्रचार, विसंवाद उत्पन्न करना, जाति, कुल तथा शील में कलंक लगाना, नकली नाप-तौल का सामान रखना, नकली सोना, मोती, घी, दूध, अगर, कपूर, कुंकुम आदि के द्वारा लोगों को ठगना, सद्गुणों का लोप करना, आर्तध्यान युक्त मरण करना, आदि हैं। मनुष्यायु के कारण अल्पारम्भ तथा अल्पपरिग्रह, मृदुल परिणाम, महान् पुरुषों का सम्मान, सन्तोष वृत्ति, दान में प्रवृत्ति, संक्लेश का अभाव, वाणी का संयम, भोगों के प्रति उदासीनता, पापपूर्ण कार्यों से निवृत्ति, अतिथि-संविभागशीलता, आदि हैं। प्रेमपूर्वक पूर्ण तथा अल्प संयम का धारण करना, संकट आने पर शान्त भाव धारण करना, तत्त्वज्ञान शून्य तपश्चर्या, दयापूर्ण अन्तःकरण आदि से देवायु की प्राप्ति होती है। नाम के कारण-विकृत अंग-उपांग होना, शरीर सम्बन्धी दोषों का सद्भाव, अपयश आदि का कारण अशुभ नाम-कर्म है। वह मन, वचन, कायकी कुटिलता, मिथ्याप्रचार, मिथ्यात्व, परनिन्दा, मिथ्या, कठोर तथा निरंकुश भाषण, महा आरम्भ और परिग्रह, आभूषणों में आसक्ति, मिथ्यासाक्षी, नकली पदार्थों का देना, वन में आग लगाना, पापपूर्ण आजीविका करना, तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ के परिणाम, मन्दिर के धूप, गन्ध, माल्य, आदि का अपहरण करना, अभिमान करना, अन्य के घातक यन्त्र आदि बनाना, दूसरे के द्रव्य का अपहरण करने से सम्पादित होता है। इस अशुभ नाम कर्म के कारण आज जगत् में शारीरिक विकृतियों की बहुलता दिखती है। शुभ नाम कर्म का कारण पूर्वोक्त प्रवृत्तियों से विपरीतपना है। गोत्र के कारण-लोकनिन्दित कुलों में जन्म धारण करने का कारण नीच गोत्र है। वह जाति, कुल, रूप, बल, ऐश्वर्य आदि का मद, दूसरों का तिरस्कार अथवा अपवाद, सत्पुरुषों की निन्दा, यश का अपहरण करना, पूज्य पुरुषों का तिरस्कार करना, अपने को बड़ा बताना, दूसरों की हँसी उड़ाना आदि से प्राप्त होता है। श्रेष्ठ कुलों में उत्पन्न होकर लोकप्रतिष्ठा लाभ का कारण उच्च गोत्र कर्म है। यह मानरहितपना, सत्पुरुषों का आदर करना, जाति-कुल आदि का उत्कर्ष होते हुए उसका अभिमान नहीं करना, अन्य का तिरस्कार, निन्दा, उपहास न करना, अनुपमगुणभूषित होते हुए भी निरभिमानता, भस्म से ढंकी हुई अग्नि के समान अपनी महिमा को स्वयं प्रकाशित न करना, धर्म के साधनों का सम्मान करना, आदि से प्राप्त होता है। अन्तराय के कारण प्रत्येक कार्य में विघ्न उपस्थित करनेवाला अन्तराय कर्म है। वह प्राणिवध, ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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