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प्रस्तावना
१०७ का निषेध करना, धर्म-कार्यों में विघ्न उत्पन्न करना, देवता को अर्पित नैवेद्य का प्रसादपूर्वक ग्रहण करना, भोजन-पान आदि में विन करना, निर्दोष सामग्री का परित्याग, गुरु तथा देवपूजा का व्याघात करना, आदि के द्वारा सम्पन्न होता है। यह अन्तराय कर्म दान देना, पदार्थों की प्राप्ति, उनका भोग तथा उपभोग में बाधा उत्पन्न करता है। इसके ही कारण जीव शक्तिहीन होता है।
उपर्युक्त कारणों से ज्ञानावरण आदि को विशेष अनुभाग मिलता है, कारण आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों का निरन्तर बन्ध हुआ करता है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी ने यदि ज्ञान के साधनों में बाधा उपस्थित की, तो उसके मोहनीय, अन्तराय आदि कर्मों का भी आस्रव होगा। इतनी विशेषता होगी कि ज्ञानावरण को विशेष अनुराग मिलेगा, ज्ञानावरण के रस में प्रकर्षता होगी।
तत्त्वज्ञानी के बन्ध होता है या नहीं?
इस बन्धतत्त्व के विषय में कुछ लोगों की ऐसी समझ है कि सम्यक्त्व की आत्मनिधि मिलने पर आत्मा की बन्ध-परम्परा नष्ट हो जाती है। वे कहते हैं-बन्ध का कारण अज्ञान चेतना है। सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना होती है, इसलिए वह बन्धन की व्यथा से मुक्त है। ज्ञान से मुक्ति लाभ का समर्थन सांख्य, बौद्ध, नैयायिक
आदि भी करते हैं। यदि ज्ञान अथवा सम्यग्दर्शन के द्वारा कर्मों का अभाव हो जाये, तो रत्नत्रय-मार्ग की मान्यता के साथ कैसे समन्वय होगा?
सम्यग्दृष्टि के बन्ध के विषय में अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं-“ज्ञानी जीव आस्रव-भावना के अभिप्राय के अभाववश निरास्रव है। वहाँ उसके भी द्रव्यप्रत्यय प्रत्येक समय अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को बाँधते हैं। इसमें ज्ञान गुण का परिणमन कारण है।"
यहाँ शंकाकार पूछता है-ज्ञान गुण का परिणमन बन्ध का हेतु किस प्रकार है? इस पर महर्षि कुन्दकुन्द कहते हैं
“जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि।
अण्णत्तं गाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो ॥” –समयसार, गा. १७१ - 'यतः ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण से पुनः अन्यरूप परिणमन करता है, ततः वह ज्ञानगुण कर्म का बन्धक कहा गया है।
इस प्रकार प्रकाश डालते हए अमतचन्द्र सरि कहते हैं-"ज्ञानगुणस्य यावज्जघन्यो भावः, तावत तस्यान्तर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुनः पुनरन्यतयाऽस्ति परिणामः । स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावा
बन्धहेतुरेव स्यात्" 'जब तक ज्ञानगुण का जघन्यभाव है-क्षायोपशमिक भाव है, तब तक उसका अन्तर्मुहूर्त में विपरिणमन होता है, इस कारण पुनःपुनः अन्यरूप परिणमन होता है। वह ज्ञान का परिणमन यथाख्यात चारित्ररूप अवस्था के नीचे निश्चय से रागसहित होने से बन्धका ही कारण है।'
सर्वार्थसिद्धि' में कहा है; “यथाख्यात-विहारशुद्धि-संयता उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ताः” (१,८, पष्ठ १२)-यथाख्यात विहारशद्धि संयमी उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गणस्थान से अयोगी जिनपर्यन्त पाये जाते हैं। अतः कषायरहित जीवों के ही अबन्ध होता है। अध्यात्मशास्त्र में सम्यक्त्वी के अबन्धकपने का अर्थ यही है कि कषायरहित सम्यक्त्वी के बन्ध नहीं होता है; शेष के बन्ध होता है। जिसके कषाय है. उससे अवश्य बन्ध होता है।
यदि ज्ञानगुण का जघन्य भावरूप परिणमन बन्ध का कारण है, तो ज्ञानी को कैसे निरास्रव कहा? इस शंका के समाधान में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
"दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्ण-भावेण।
_णाणी तेण दु बज्झदि पुग्गलकम्मेण विविहेण ॥” –समयसार, गा. १७२ -- "दर्शन, ज्ञान, चारित्र का जघन्य भाव से परिणमन होता है, इससे ज्ञानी जीव अनेक प्रकार के पुद्गल
कर्मों से बँधता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only
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