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महाबन्ध
इस विषय पर विशेष प्रकाश डालते हुए टीकाकार जयसेनाचार्य लिखते हैं
- “इस कारण भेदज्ञानी अपने गुणस्थानों के अनुसार परम्परा रूप से मुक्ति के कारण तीर्थंकर नामकर्म आदि प्रकृतिरूप पुद्गलात्मक अनेक पुण्यकर्मों से बँधता है।" (समयसार, पृ. २४५)
शंका- कोई स्वाध्यायशील व्यक्ति पूछता है - यदि उपर्युक्त कथन ठीक है, तो उसका भगवत्कुन्दकुन्द के इस वचन से किस प्रकार समन्वय होगा
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“ रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स ॥” समयसार, गा. १७७ 'सम्यक्त्वी के राग, द्वेष, मोह रूप आस्रवों का अभाव है।' इस गाथा के उत्तरार्ध में आचार्य लिखते
" तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति ।”
- अर्थात् इस कारण आस्रवभाव के अभाव में द्रव्यप्रत्यय कर्मबन्ध के कारण नहीं होते हैं । समाधान- इस विषय में विरोध की कल्पना का निराकरण करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं- “सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्वोदयजनित राग-द्वेष मोह नहीं हैं; अन्यथा वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सरागसम्यक्त्वी नहीं हो सकेगा । अथवा अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभोदयजनित राग, द्वेष-मोह सम्यक्त्वी के नहीं पाये जाते हैं, कारण षष्ठ गुणस्थानरूप सरागचारित्र के अविनाभावी सरागसम्यत्क्व की अन्य प्रकार से उपपत्ति नहीं पायी जाती है। अथवा अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, क्रोध, मान, माया, लोभोदयजनित प्रमाद के उत्पादक राग-द्वेष-मोह सम्यक्त्वी के नहीं हैं, कारण अप्रमत्तादिगुणस्थानवर्ती वीतरागचारित्र के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखनेवाले वीतराग सम्यक्त्व की अन्य प्रकार से उपपत्ति नहीं पायी जाती है ।"
इस सुव्यवस्थित तथा सुस्पष्ट निरूपण-द्वारा आचार्य महाराज ने यह समझा दिया है कि सम्यक्त्वी के बन्ध - अबन्ध का कथन एकान्तरूप से नहीं है। अविरत सम्यक्त्वी के मिध्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी निमित्तक प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, किन्तु अन्य कषायादि निमित्तक प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी निमित्तक प्रकृतियों के अभाव को मुख्य बना अविरत सम्यक्त्वी के अबन्ध का वर्णन सुसंगत है। इस विवक्षा को गौण बनाकर बन्ध को प्राप्त होनेवाली प्रकृतियों की अपेक्षा बन्ध का कथन भी समीचीन है।
शंका- सम्यक्त्वी के बन्धाभाव का एकान्तपक्ष वाले कहते हैं कि 'अविरत सम्यक्त्वी के जो अप्रत्याख्यानावरण, वज्रवृषभ संहनन, औदारिक शरीर आदि का बन्ध है, वह बन्ध नहीं के समान है ।'
समाधान- इस कथन में तात्त्विक विचार का अभाव है। जब अविरतसम्यक्त्वी के द्वारा बाँधे गये कर्मों में कषाय और योग के कारण प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग बन्ध होते हैं, तब उनको बिलकुल ही तुच्छ मानना और सर्वथा अबन्ध घोषित करना जैन दृष्टि-स्याद्वाद विचार शैली के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। जयसेनाचार्य ने पूर्णतया विश्लेषण करके सम्यक्त्वी को कथंचित् बन्धक और कथंचित् अबन्धक प्रमाणित कर दिया है ।
आगम की आज्ञा - इस प्रसंग में 'षट्खण्डागमसूत्र' के दूसरे खण्ड क्षुद्रबन्ध में भूतबलि भट्टारक रचित महत्त्वपूर्ण सूत्र आया है। 'षट्खण्डागम' सूत्र का साक्षात् सम्बन्ध गणधर की वाणी से रहा है, अतः उस सूत्र का सर्वोपरि महत्त्व हो जाता है। वह सूत्र इस प्रकार है - " सम्मादिट्ठी बंधा वि अस्थि, अबंधा वि अतिथ" ३६ - सम्यक्त्वी के बन्ध होता है, अबन्ध भी होता है। इस पर धवला टीकाकार कहते हैं- “कुदो? सासवाणासवेसु सम्मद्दंसणुवलंभा”.
प्रश्न- उपर्युक्त कथन क्यों किया गया?
उत्तर - आस्रवयुक्त तथा आस्रवरहित जीवों में सम्यग्दर्शन का सद्भाव पाया जाता है।
इस कथन से दो प्रकार के सम्यक्त्वी ज्ञात होते हैं। एक सम्यक्त्वी सास्रव है और दूसरा आस्रवरहित
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