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प्रस्तावना
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है। आस्रव के उत्तर क्षण में बन्ध होता है, अतः बन्धसहित भी सम्यक्त्वी होता है; यह सर्वज्ञ की प्ररूपणा
करना श्रेयस्कर है। आस्रव का कारण योग है-"काय-वाङमनः कर्मयोगः.स आस्रवः"। ऐसी स्थिति में सयोगकेवली को आस्रवयुक्त मानना होगा। आस्रवरहित अयोगकेवली माने गये हैं-"णिरुद्धणिस्सेस-आस्रवो जीवो...गय जोगो केवली"-जब केवली भगवान के सयोगी होने पर कर्मबन्ध माना है, तब अविरत सम्यक्त्वी को सर्वथा बन्धरहित कहना उचित नहीं है। उसके आस्रव तथा बन्ध के चार कारण अविरति, प्रमाद, कषाय और योग पाये जाते हैं। ____बन्ध का लक्षण सूत्रकार ने इस प्रकार किया है-“सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः" -(८/२) जीव सकषाय होने के कारण जो कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, उसे बन्ध कहते हैं। यह लक्षण अविरत सम्यक्त्वी आदि के द्वारा गृहीत कर्मों में गर्भित होने से उनके पाया जानेवाला बन्ध काल्पनिक नहीं है। सम्यग्दर्शन की प्राथमिक दशा में अल्प मात्रा में निर्जरा होती है। अविरति आदि कारणों से कर्मों का निरन्तर बन्ध होता रहता है। अविरत दशावाला कों की महान निर्जरा करता है, उसके बन्ध नहीं होता, ऐसा साहित्य प्रचार में आता है; उससे प्रभावित चित्तवालों को पक्षमोह छोड़ना चाहिए।
महत्त्वपूर्ण कथन-गुणभद्र आचार्य का यह कथन ध्यान से मनन करने योग्य है। उन्होंने 'उत्तरपुराण' में विमलनाथ भगवान् के वैराग्यभाव का उल्लेख करते हुए कहा है कि भगवान् इस प्रकार सोचते हैं-जब तक संसार की अवधि है, तब तक इन उत्तम तीन ज्ञानों से क्या काम निकलता है और इस वीर्य से भी क्या लाभ है; यदि मैंने श्रेष्ठ विकास-मोक्ष को नहीं प्राप्त किया। भगवान अपने चित्त में विच
"चारित्रस्य न गन्धोऽपि प्रत्याख्यानोदयो यतः। बन्धश्चतुर्विधोऽप्यस्ति बहुमोहपरिग्रहः ॥ प्रमादाः सन्ति सर्वेऽपि निर्जराप्यल्पिकेव सा।
अहो मोहस्य माहात्म्यं मान्द्याम्यहमिहैव हि॥ -उत्तरपुराण, पर्व ५६, श्लोक ३५-३६ प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय होने से मेरे चारित्र की गन्ध तक नहीं है तथा बहुत मोह और परिग्रह
प्रकति. प्रदेश. स्थिति तथा अनभाग रूप चतर्विध बन्ध हो रहा है। मेरे सभी प्रमाद पाये जाते हैं। मेरे कर्मों की निर्जरा भी अत्यन्त अल्प प्रमाण में होती है। अहो! यह मोह की महिमा है, जो मैं (तीर्थंकर होते हुए भी) इस संसार में ही बैठा हूँ"। भगवान विमलनाथ के विचारों के माध्यम से चतुर्थ, पंचम गुणस्थानवी व्यक्ति की मनोदशा का यथार्थ स्वरूप समझा जा सकता है तथा इस प्रकाश में देखने पर यह प्रतीत होता है कि कुछ आध्यात्मिक कवियों, लेखकों तथा भजन-निर्माताओं ने जो अविरत सम्यक्त्वी के महत्त्व पर गहरा रंग भरा है और उसे अबन्धक कहा है, वह उनकी निजी वस्तु है। आगम तो यह मानता है कि अविरत दशा में अविरति आदि कारणों से बन्ध होता रहता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा अत्यन्त अल्प मात्रा में होती है।
प्रश्न-चौथे गुणस्थान से आगे के गुणस्थान चारित्र के विकास से सम्बन्ध रखते हैं। असली रत्न कहो, विधि कहो; वह तो सम्यक्त्व है। चारित्र का कोई विशेष महत्त्व नहीं है क्या?
समाधान-यह धारणा सर्वज्ञ प्रणीत देशना से विपरीत है। सम्यक्त्व का महत्त्व सर्वोपरि है, किन्तु बिना चारित्र के वह सम्यक्त्व मोक्ष का कारण नहीं हो सकता। सम्यक्त्वी जिस वीतरागता की चर्चा करता है, वह रागरहितपना चारित्र धारण किए बिना असम्भव है। राग चारित्रमोह का भेद है। जितना-जितना चारित्र का धारण होता है, उतना-उतना रागरहित भाव जागृत होता जाता है। सोमदेव सूरि ने बड़ी मार्मिक बात कही है
“सम्यक्त्वात्सुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कीर्तिरुदाहृता। वृत्तात्पूजामवाप्नोति त्रयाच्च लभते शिवम् ॥"
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