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महाबन्ध
से मनुष्य तथा देवगति में जन्म प्राप्त होता है, ज्ञान के द्वारा कीर्ति मिलती है तथा चारित्र के द्वारा पूज्यता प्राप्त होती है। तीनों के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सम्यक्चारित्र का महत्त्व-आचरण के बिना श्रद्धा शोभायान नहीं होती। सम्यक् श्रद्धा तथा चारित्र का भोग मणि-कांचन योग सदृश है। कुन्दकुन्द स्वामी ने 'रयणसार' में कहा है
... "णाणी खवेई कम्मं णाणबलेणेदि बोल्लए अण्णाणी।
वेज्जो मेसज्जमहं जाणे इदि णस्सदे वाही ॥"-रयणसार, गा. ७२ ज्ञानी पुरुष ज्ञान के प्रभाव से कर्मों का क्षय करता है, यह कथन करने वाला अज्ञानी है। मैं वैद्य हूँ. मैं औषधि को जानता हूँ. क्या इतने जानने मात्र से व्याधि दर हो जाएगी?
केवल सम्यग्दर्शन से सुगति प्राप्त होती है तथा मिथ्यात्व से नियमतः कुगति मिलती है-यह कथन कुन्दकुन्द स्वामी को भी सम्मत है, इससे वे कहते हैं
“सम्मत्तगुणाइ सुग्गइ मिच्छादो होइ दुग्गई णियमा।
इदि जाण किमिह बहुणा जं ते रूचेइ तं कुणहो ॥"-रयणसार, गा. ६६ सम्यक्त्व के कारण सुगति तथा मिथ्यात्व से नियमतः दुर्गति होती है, ऐसा जानो। अधिक कहने से क्या प्रयोजन? जो तुझको रुचे, वह कर। 'प्रवचनसार' में कहा है
“ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्येसु।
सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ॥" -प्रवचनसार, गा. २३७ यदि पदार्थों की सम्यक श्रद्धा नहीं है, तो शास्त्रज्ञान के बल से मोक्ष नहीं होगा। कदाचित् पदार्थों की श्रद्धा भी है और संयम नहीं है, तो ऐसा असंयमी सम्यक्त्वी भी मोक्ष नहीं पाएगा। अतः अमृतचन्द्र सूरि कहते है-“ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्विः।” (पृ. ३२८)
अयोगकेवली रूप सम्यक्त्वी के सर्वथा बन्ध का अभाव है। उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय तथा सयोगी . जिनके केवल सातावेदनीय का प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध योग के कारण होता है। उससे नीचे चारों बन्ध होते
सम्यक्त्वी ही कुछ प्रकृतियों का बन्धक-कर्मों में कुछ प्रकृतियाँ तो मिथ्यात्वी जीव बाँधता है और कुछ ऐसी प्रकृतियाँ जिनके लिए विशुद्धभाव कारण होने से सम्यक्त्वी ही बन्धक कहा गया है। इतना ही नहीं, शुक्लध्यानी, शुद्धोपयोगी मुनीन्द्र तक पुण्य कर्म रूप प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। जिनके क्रोध, मान तथा माया कषाय का अभाव हो चुका है, ऐसे सूक्ष्म लोभ गुणस्थान वाले मुनिराज के उच्चगोत्र, यशःकीर्ति रूप पुण्यप्रकृतियाँ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध युक्त बँधती हैं। 'महाबन्ध' में लिखा है-“आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगाणं को बंधको? को अबंधको? अप्पमत्त-अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा"-आहारकशरीर तथा आहारकशरीरांगोपांग का कौन बन्धक है, कौन अबन्धक है? अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि तथा अपूर्वकरण के काल में संख्यातभाग व्यतीत होने पर बन्ध की व्युच्छित्ति होती है। उपर्युक्त गुणस्थान वाले बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं।
___"तित्थयरस्स को बंधको, को अबंधो? असंजदसम्माइट्टि याव अपुव्वकरण० बंधा०। अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जभागं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा।-" तीर्थंकर प्रकृतिका कौन बन्धक है, कौन अबन्धक है? असंयतसम्यग्दृष्टि लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त बन्धक है। अपूर्वकरण के काल के संख्यातभाग व्यतीत होने तक बन्ध होता है। आगे बन्ध की व्युच्छित्ति हो जाती है। अतः पूर्वोक्त बन्धक है तथा शेष अबन्धक हैं। ('महाबन्ध' प्रकृतिबन्ध, भाग १, ताम्र पत्र प्रति, पृ. ५) जीव के भावों की विचित्रता का रहस्य सर्वज्ञ ज्ञानगम्य है। सकल संयम के धारक शुक्लध्यान में निमग्न शुद्धोपयोग की उच्च स्थिति
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