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________________ प्रस्तावना १११ को प्राप्त व्यक्ति के जब पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है, तब नीचे की अवस्थावाले अविरत सम्यक्त्वी को बन्धरहित कहना सोचना, समझना तथा समझाना परमागम की देशना के विपरीत कथन करना है। क्या सम्यक्त्वी के ज्ञानचेतना ही होती है? शंका-सम्यक्त्वी के बन्धाभाव का समर्थन शंकाकार अन्य प्रकार से करता हुआ कहता है। सम्यक्त्वी के ज्ञानचेतना होती है, इससे उस बन्ध का अभाव आगमाविरुद्ध है। समाधान-मिथ्यात्वी के ज्ञान चेतना का अभाव सबको इष्ट है। सम्यक्त्वी के ज्ञान चेतना ही होती है, ऐसी बात नहीं है। चेतना के स्वरूपपर विशेष प्रकाश डालते हुए अमृतचन्द्रसूरि 'समयसार' की टीका (पृ. ४८१) लिखते हैं-"ज्ञान से अन्यत्र मैं 'यह' हूँ; इस प्रकार का चिन्तन अज्ञानचेतना है। वह कर्मचेतना, कर्मफल चेतना के भेद से दो प्रकार की है। ज्ञान से पृथक् मैं 'यह' करता हूँ, यह चिन्तन कर्म चेतना है। ज्ञान से अन्य मैं यह अनुभव करता हूँ, इस प्रकार का चिन्तन कर्मफल चेतना है। दोनों चेतनाएँ समान रसवाली हैं तथा संसार की कारण हैं। संसार का बीज अष्टविध कर्मों के बीजरूप होता है। अतः मुमुक्षु को उचित है कि वह अज्ञान चेतना को दूर करने के लिए सम्पूर्ण कर्मों के त्याग की भावना तथा सम्पूर्ण कर्मफल त्याग की भावना को नृत्य कराकर आत्मस्वरूपवाली भगवती ज्ञान चेतना को ही नित्य नृत्य करावे।" इस विषय को अधिक स्पष्ट करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं-"मेरा कर्म है, मेरे द्वारा किया गया है, इस प्रकार अज्ञान भाव से मन-वचन-काय की क्रिया करना कर्म चेतना है। आत्मस्वभाव से रहित अज्ञानभाव द्वारा इष्ट अनिष्ट विकल्परूप से हर्ष, विषाद, सुख-दुःख का जो अनुभवन करना है, वह कर्मफल चेतना है। (पृ. ४६०) कुन्दकुन्द स्वामी 'प्रवचनसार' में कहते हैं “परिणमदि चेदणाए आदा पुण चेदणा तिधाभिमदा। सा पुण णाणे कम्मे फलम्मि वा कम्मणो भणिदा ॥” –गा. १२३ -'चेतना की ज्ञानरूप परिणति ज्ञानचेतना है, कर्मरूप परिणति कर्म-चेतना तथा फलरूप परिणति कर्मफल-चेतना है।' इससे यह प्रकट होता है कि ज्ञानचेतना में ज्ञातृत्व भाव है, कर्मचेतना में कर्तृत्व परिणति है और कर्मफल चेतना में भोक्तृत्व भाव है। सम्यक्त्वी के कर्म तथा कर्मफल चेतना का सद्भाव सम्यक्त्वी के ज्ञान चेतना ही पायी जाती है, इस भ्रम का निवारण करते हुए पंचाध्यायीकार कहते “अस्ति तस्यापि सदृष्टेः कस्यचित् कर्मचेतना। अपि कर्मफले सा स्यादर्थतो ज्ञानचेतना ॥ -पंचाध्यायी, २,२७५ -'किसी सम्यक्त्वी के कर्म तथा कर्मचेतना भी पायी जाती हैं। किन्तु परमार्थ से सम्यक्त्वी के ज्ञान चेतना पायी जाती है।' यहाँ पूर्ण ज्ञान विशिष्ट सम्यक्त्वी को लक्ष्य में रखकर उसके ज्ञानचेतना का परमार्थ रूप से सद्भाव प्रतिपादित किया है। अपूर्ण ज्ञानी की अपेक्षा कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना भी कही है। इस दृष्टि का स्पष्टीकरण निम्नलिखित पद्य से होता है १. “सर्वे कर्मफलं मुख्यभावेन स्थावरास्त्रसाः। सकार्य चेतयन्तस्ते प्राणित्वाज्ञानमेव च ॥" अन. ध. २/३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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