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महाबन्ध
"चेतनायाः फलं बन्धस्तत्फले वाऽथ कर्मणि ।
रागाभावान्न बन्धोऽस्य तस्मात्सा ज्ञानचेतना ॥” – पंचाध्यायी, २,२७६
- 'कर्म तथा कर्मफलचेतना का फल बन्ध कहा है। उस सम्यक्त्वी के राग का अभाव होने से बन्ध नहीं है। अतः उसके ज्ञानचेतना है।' यहाँ रागाभाव होने से बन्ध का अभाव कहा है। यह रागाभाव उपशान्तकषायादि गुणस्थान में होगा, अतः उसके पूर्व रागभाव का सद्भाव होने से बन्ध का होना स्वीकार करना होगा । यथार्थ ज्ञानचेतना केवलज्ञानी के होगी जिनके अज्ञान का अभाव हो गया है और छद्मस्थ अवस्था से अतीत हो गये हैं। कुन्दकुन्द स्वामी की यह गाथा इस विषय में बहुत उपयोगी है।
“सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसादि कज्जजुदं । पाणित्तमदिक्कता णाणं विंदति ते जीवा ॥” – पंचास्तिकाय, गा. ३६ ।
- "सम्पूर्ण स्थावर जीवों के कर्मफल चेतना है । त्रस जीवों में कर्मफल के सिवाय कर्मचेतना भी पायी जाती है। प्राणी इस व्यपदेश को अतिक्रान्त-जीवन्मुक्त ज्ञानचेतना का अनुभवन करते हैं। यहाँ 'जीवन्मुक्त' शब्द का अर्थ अविरत सम्यक्त्वी नहीं, किन्तु केवली भगवान् हैं; कारण टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है कि सम्पूर्ण मोह कलंक के नाशक, ज्ञानावरण-दर्शनावरण ध्वंस करनेवाले, वीर्यान्तराय के क्षय से अनन्तवीर्य को प्राप्त करने वाले अत्यन्त कृतकृत्य केवली भगवान् ज्ञानचेतना को ही अनुभव करते हैं।
'पंचास्तिकाय ' टीका के ये शब्द महत्त्वपूर्ण हैं- “ तत्र स्थावराः कर्मफलं चेतयन्ते । त्रसाः कार्यं चेतयन्ते । केवलज्ञानिनो ज्ञानं चेतयन्ते (पंचास्तिकाय. टीका, पृ. १२) स्थावर जीव कर्मफलचेतना का अनुभवन करते हैं। सजीव कर्मचेतना का अनुभव करते हैं । केवलज्ञानी ज्ञानचेतना का अनुभवन करते हैं। /
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'अनगारधर्मामृत' की संस्कृत टीका (पृ. १०७ में पण्डितप्रवर आशाधरजी लिखते हैं- “जीवन्मुक्तास्तु मुख्यभावेन ज्ञानम् । गौणतया त्वन्यदपि ।...सा चोभय्यपि जीवन्मुक्तेर्गौणी बुद्धिपूर्वक कर्तृत्व- भोक्तृत्वयोरुच्छेदात्” - जीवन्मुक्तों के मुख्यता से ज्ञान चेतना है। गौण रूप से उनके अन्य भी चेतनाएँ हैं। वे कर्म और कर्मफल चेतनाएँ जीवन्मुक्त में मुख्य नहीं, किन्तु गौणरूप से हैं; कारण उनमें बुद्धिपूर्वक कर्तृत्व और भोक्तृत्व का अभाव हो चुका है ।
इस विवेचन से यह विदित हो जाता है कि केवली भगवान् से नीचे के गुणस्थानवर्ती सम्यक्त्वी जीवों में कर्म और कर्मफल चेतनाएँ भी पायी जाती हैं। अविरत सम्यक्त्वी के विचित्र कार्यों को बन्धरहित बताना और उसे सदा सजग ज्ञानचेतना का ही स्वामी कहना बड़ी आश्चर्यप्रद बात है। क्षायिक सम्यक्त्वी श्रेणिक महाराज ने आत्मघात करके प्राण परित्याग किये। परम धार्मिक सीता के प्रतीन्द्र पर्याय के जीवन ने तपश्चर्या में निमग्न महामुनि रामचन्द्र को धर्म से डिगाने का मोहवश प्रयत्न किया, ताकि रामचन्द्रजी का सीता के स्वर्ग में ही उत्पाद हो जाए। ये क्रियाएँ शुद्धचेतना के प्रकाश को नहीं बताती हैं। इन पर कर्म, कर्मफल चेतनाओं का प्रभाव स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है । चारित्रमोहोदयवश ये क्रियाएँ हुआ करती हैं। 'सदन - निवासी, तदपि उदासी तातें आस्रव छटाछटी सी - यह सम्यक्त्वी गृहस्थ का चित्रण सम्पूर्ण आस्रव के निरोध को नहीं बताता है। मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी तथा असंयम निमित्तक आस्रव के निरोध का ज्ञापक है । अतः परमागम के प्रकाश से ज्ञात होता है कि सम्यक्त्वी के जघन्य अवस्था में ज्ञानचेतना के सिवाय कर्म और कर्मफल चेतनाएँ भी पायी जाती हैं। उनके कारण वह किन्हीं प्रकृतियों का बन्ध नहीं करता है और किन्हीं कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी करता है; इस प्रकार का स्याद्वाद है ।
ग्रन्थ का विषय - 'महाबन्ध' के इस 'पयडिबन्धाहियार' - प्रकृतिबन्धाधिकार नामक खण्ड में प्रकृतिसमुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, बन्धकाल, बन्ध - अन्तर, बन्धसन्निकर्ष, भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव तथा अल्पबहुत्व - इन चौबीस अनुयोग द्वारों से प्रकृति बन्ध पर प्रकाश डाला गया है।
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