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________________ प्रस्तावना ११३ इस कर्मबन्धन के कारण अनन्त ज्ञान-आनन्द शक्ति, आदि का अधिपति यह आत्मा दीनतापूर्ण जीवन बिता कष्ट उठाता है। इस आत्मा का यथार्थ कल्याण आत्मीय दोषों के निर्मूल करने में है। समाधि की प्रचण्ड अग्नि द्वारा इस दोष-पुंज का अविलम्ब क्षय होता है। संवर और निर्जरा रूप परिणति से उस स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है, जिसको परम निर्वाण कहते हैं। इस पद का प्रधान कारण भेदज्ञान की प्राप्ति है। मेरा आत्मा एक है, ज्ञान-दर्शनमय है; शेष सर्व अनात्म भाव है। इस विद्या के प्रभाव से सिद्धत्व की अभिव्यक्ति होती है। बन्ध की विपत्ति से बचने के लिए योगीन्द्रदेव कहते हैं "अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय, अण्णु जि गुरुउ म सेवि। अण्णु जि देउ म चिंति तुहुं, अप्पा विमलु मुएवि ॥* परमात्मप्रकाश, अ. १, दो. ६५ "हे आत्मन् ! तू दूसरे तीर्थों को मत जा; अन्य गुरु की शरण में मत पहुँच, अन्य देव का चिन्तवन मत कर। अपनी निर्मल आत्मा को छोड़कर अन्य का चिन्तन मत कर।" जब आत्मा यह समझ लेता है कि मैं कर्मों के बन्ध में बद्ध हो गया हूँ; किन्तु मैं इससे भिन्न स्वरूपवाला हूँ, तब उसे सच्चा प्रकाश प्राप्त हो जाता है। तत्त्व की बात तो इतनी है "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥" 'जो जीव सिद्ध हुए हैं, वे सब अभेदरत्नत्रय स्वरूप भेद-विज्ञान से सिद्ध हुए हैं। जो अब तक संसार में बद्ध हैं, वे उस निर्विकल्पज्ञान के अभाव से बँधे हैं। भेदविज्ञान की लोकोत्तरता भेदविज्ञान की उपलब्धि सरल कार्य नहीं है। उसके लिए ही सर्व उद्योग मुमुक्ष पुरुष किया करते हैं। विश्व के अतुलनीय साम्राज्य और विभूति का त्याग करके भी उसकी प्राप्ति दुर्लभ रहती है। भेदविज्ञान के पश्चात् अद्वैत भावना के अभ्यास द्वारा निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करके जब जीव एकत्व-वितर्क नाम के द्वितीय शुक्लध्यान को प्राप्त करता है, तब कर्मों का राजा मोहनीय क्षय को प्राप्त होता है। उस समय क्षण मात्र में आत्मा अर्हन्त बनकर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्य रूप अनन्त चतुष्टय से समलंकृत होता है। उस प्राप्तव्य परम पदवी के लिए उपायरूप मार्गदर्शन गुणभद्राचार्य के इन शब्दों-द्वारा प्राप्त होता है “अकिंचनोऽहमित्यास्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवः। योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः ॥-आत्मानुशासन, श्लोक ११० हे भद्र! 'अकिंचनोऽहं' 'मेरा कुछ नहीं है', इस भावना के साथ स्थित हो। ऐसा करने से तू त्रिलोकीनाथ बन जाएगा। मैंने यह तुझको परमात्मा का रहस्य कहा है जो योगियों के ही अनुभवगम्य है। सत्पथ-इस अकिंचनपने की भावना के साथ संयमशील पुनीत जीवन भी आवश्यक है। वे मुनीश्वर यह मार्मिक बात कहते हैं “दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृतिसमयमल्पपरमायुः। मानुष्यमिहैव तपो मुक्तिस्तपसैव तत्तपः कार्यम् ॥१११॥" यह मनुष्य पर्याय दुर्लभ, अशुद्ध, सुखरहित है। इस पर्याय में आगामी मरण कब होगा, यह अविदित है। अन्य पर्यायों की तुलना में आयु भी थोड़ी है। यह विशेष बात है कि तपःसाधना इसी पर्याय में सम्भव है। कर्मक्षयरूप मुक्ति उसी तप से प्राप्त होती है। इससे तप का आचरण भी करना चाहिए। . आचार्य वादीभसिंहसूरि 'क्षत्रचूडामणि' में कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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