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महाबन्ध
“ नटवन्नैकवेषेण भ्रमस्यात्मन्स्वकर्मतः ।
तिरश्चि निरये पापाद्दिवि पुण्याद्वयान्नरे ॥” - क्षत्रचूडामणि, ११,३६
" हे आत्मन् ! तू अपने कर्म के उदय से नाटक के नटके समान जगत् में भ्रमण करता है । पाप के उदय से तिर्यंच और नरक पर्याय पाता है। पुण्य के उदय से देव होता है तथा पाप और पुण्य के संयुक्त उदय से मनुष्य पर्याय पाता है । "
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" त्वमेव कर्मणां कर्त्ता भोक्ता च फलसन्ततेः ।
भोक्ता च तात किं मुक्तौ स्वाधीनायां न चेष्टसे ॥” – क्षत्रचूडामणि, ११,४५
हे आत्मन्! तू ही अपने कर्मों का बन्ध करता है और उसकी फलपरम्परा का भोक्ता भी तू है । तू ही कर्मों का क्षय करने में समर्थ है। हे तात! मुक्ति तेरे स्वाधीन है, उसके लिए क्यों नहीं उद्योग करता है ?
कवि कर्मों के कुचक्र से बचने के हेतु आत्मा को सचेत करता हुआ कहता है-भद्र ! तू इन कर्माष्ट के दुष्कृत्यों पर दृष्टि देकर उनके विषय में धोखा मत खा । इन कर्मों का ढंग बड़ा अद्भुत है। क्षणभर में ये तुझे सिंहासन का अधिपति बनाकर दूसरे काल में तुझे भिखारी भी बना सकते हैं। इन पर विश्वास
मत कर
" आठन की करतूति विचारहु कौन-कौन ये करते हाल । कबहूँ सिर पर छत्र फिरावें, कबहूँ रूप करें बेहाल । देव - लोक सुख कबहूँ भुगते, कबहूँ रंक नाज को काल । ये करतूति करें कर्मादिक चेतन रूप तू आप सम्हाल ॥”
सार की बात
मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थी मानव को आत्मा और अनात्मा का पूर्णतया स्पष्ट अवबोध आवश्यक है। इसके पश्चात् जीव परम-यथाख्यात चारित्र के द्वारा कर्म-शैल के ध्वंस करने में समर्थ होता है । आचार्य कुन्दकुन्द की यह अमृतवाणी अमृत पथ को इन सारगर्भित शब्दों द्वारा स्पष्ट करती है
“बंधाणं च सहावं वियाणिदु अप्पणी सहावं च ।
बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्म विमोक्खणं कुणदि ॥” – समयसार, गा. २६३
जो विवेकी बन्ध का तथा आत्मा का स्वभाव सम्यक् प्रकार से अवगत कर बन्ध से विरक्त होता है, वह कर्मों का पूर्णतया क्षय करता है । '
'तत्त्वानुशासन' की तत्त्वदेशना अभिवन्दनीय है
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“कर्मजेभ्यः समस्तेभ्यः भावेभ्यो भिन्नमन्वहम् । ज्ञ-स्वभावमुदासीनं पश्येदात्मानमात्मना ॥१६४॥”
मेरा आत्मा सम्पूर्ण कर्मजनित भावों से सर्वदा भिन्न है तथा वह ज्ञान स्वभाव एवं उदासीनरूप (राग-द्वेषरहित) है, ऐसा अपनी आत्मा के द्वारा आत्मा का दर्शन करे ।
9. Whoever with a clear knowledge of the nature of Karmic bondage as welll as the nature of the Self, does not get attracted by bondage-that person obtains liberation from karmas. (Samayasara by Prof. A. Chakravarti, P. 189.)
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