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________________ ११५ विषय-परिचय 'महाबन्ध' के प्रथम भाग का नाम-प्रकृतिबन्धाधिकार (पयडिबंधाहियारो) है। इसमें प्रकृतिबन्ध का अधिकार है। प्रकृतियों के स्वरूप का निरूपण करना 'प्रकृति समुत्कीर्तन' कहलाता है जो ‘महाबन्ध' के प्रथम भाग का मूल विषय है, किन्तु ताड़पत्र के त्रुटित होने से कुछ अंश प्रकाशित नहीं हो सका है। प्रकृतिसमुत्कीर्तन के दो भेद हैं-मूलप्रकृतिसमुत्कीर्तन और उत्तरप्रकृतिसमुत्कीर्तन। अपने अन्तर्गत समस्त भेदों का संग्रह करनेवाली तथा द्रव्यार्थिकनय-निबन्धक प्रकृति का नाम मूल प्रकृति है। अलग-अलग अवयव वाली तथा पर्यायार्थिकनय निमित्तक प्रकृति को उत्तरप्रकृति कहते हैं। मूल में जीव और कर्म स्वतन्त्र दो द्रव्य हैं। जीव -अमूर्त है और कर्म मूर्तिक है। अनादि काल से जीव और कर्म का भावात्मक तथा द्रव्यात्मक सम्बन्ध है। 'प्रकृति' शब्द का अर्थ शील, स्वभाव है। निक्षेप की दृष्टि से विचार किया जाए, तो नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ये चार भेद किये गये हैं। द्रव्यप्रकृति के भी दो भेद हैं-आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमद्रव्यप्रकृति। 'द्रव्य' का अर्थ यहाँ पर भव्य है। इसके दो भेद हैं-कर्मद्रव्यप्रकृति और नोकर्मद्रव्यप्रकृति। जैसे, घट, सकोरा आदि की प्रकृति मिट्टी है, पुद्गल की प्रकृति ; वैसे ही ज्ञानावरवादि आठ कर्मों की अपनी-अपनी प्रकृति है। ज्ञान जीव का स्वभाव है और ज्ञान का आवरण करना यह ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव है। ज्ञानावरणकर्म की पाँच प्रकृतियाँ हैं-आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण। मिथ्यात्व के उदय में होने वाले आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान को कुज्ञान कहा जाता है। ज्ञान एक होने पर भी बन्धविशेष के कारण वह पाँच प्रकार का कहा गया है। - आभिनिबोधिकज्ञान पाँच इन्द्रियों और मनके निमित्त से अप्राप्त रूप बारह प्रकार के पदार्थों का अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा एवं प्राप्त रूप उन बारह प्रकार के पदार्थों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियों के द्वारा मात्र अवग्रह रूप होता है, इसलिये इसके अनेक भेद हो जाते हैं। अर्थावग्रह रूप होता है, इसलिए इसके अनेक भेद हो जाते हैं। अर्थावग्रह व्यक्त वस्तु को ग्रहण करता है जो इन्द्रिय और मन के द्वारा होता है। ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान भी पाँच इन्द्रियों और मन से होने के कारण अर्थावग्रहकी भाँति प्रत्येक छह-छह भेदवाला है। इस कारण व्यंजनावग्रह के चार भेदों में अर्थावग्रहादि के चौबीस भेदों को मिलाने से २८ भेद होते हैं। अतएव आभिनिबोधिकज्ञानावरण कर्म के भी २८ भेद हो जाते हैं। इसके बहु, एक, बहुविध, एकविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, उक्त, अनुक्त, ध्रुव, अध्रुव, निःसृत, अनिःसृत-इन बारह प्रकार के पदार्थों को विषय करने से प्रत्येक के बारह-बारह भेद हो जाते हैं। इस प्रकार २८ x १२-३३६ भेद मतिज्ञान या आभिनिबोधिकज्ञान के होते हैं। अतः आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकर्म के भी ३३६ भेद होते हैं। ज्ञानका दूसरा भेद श्रुतज्ञान है। यह मतिज्ञानपूर्वक मन के आलम्बन से होता है। श्रुतज्ञान के शब्दजन्य तथा लिंगजन्य दो भेद किये गये हैं। यथार्थ में पदार्थ को जानकर उसके सम्बन्ध में या उससे सम्बन्धित अन्य पदार्थ के सम्बन्ध में विचार-धारा की प्रवृत्ति होना श्रुतज्ञान है। इस दृष्टि से श्रुतज्ञान अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक अथवा द्रव्य-भाव के भेद से दो प्रकार का है। अतः आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह अंग, उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्व और सामायिकादि चौदह प्रकीर्णक द्रव्यश्रुत हैं। द्रव्यश्रुत अक्षरात्मक है। उसके सुनने-पढ़ने से श्रुतज्ञान की पर्याय रूप जो उत्पन्न हुआ ज्ञान है, वह भावश्रुत है। वर्तमान परमागम नामसे द्रव्यश्रुत तथा परमागके आधार से उत्पन्न निर्विकार, स्वसंवेदन (आत्मानुभव) ज्ञान रूप भावश्रुतज्ञान है। अतः आत्मविषयक उपयोग दर्शन कहा गया है। दर्शन ज्ञानरूप नहीं होता, क्योंकि ज्ञान बाह्य अर्थों को विषय करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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