________________
११६
महाबन्ध
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से सीमित ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं। इसको सीमाज्ञान भी कहते हैं। महास्कन्ध से लेकर परमाणु पर्यन्त समस्त पुद्गल द्रव्यों को, असंख्यात लोकप्रमाण क्षेत्र, काल
और भावों को तथा कर्म के सम्बन्ध से पुद्गलभावको प्राप्त हुए जीवों को जो प्रत्यक्ष रूप से जानता है, उसे अवधिज्ञान समझना चाहिए। जहाँ इस ज्ञान का विकास नहीं हो रहा है, वह अवधिज्ञानावरणीय कर्म है जो एक प्रकार का है। उसकी प्ररूपणा दो प्रकार की है। क्षयोपशम की दृष्टि से असंख्यात प्रकार : होने पर भी अवधिज्ञान के मुख्य दो भेद कहे गये हैं-भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों, नारकियों और तीर्थंकरों के होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान तिर्यंचों तथा मनुष्यों के होता है। इन दोनों अवधिज्ञानों के अनेक भेद हैं-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि तथा हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेकक्षेत्र । इन सबका प्रतिबन्धक होने से अवधिज्ञानावरण कर्म कहा जाता है। इसकी असंख्यात कर्म-प्रकृतियाँ हैं। काल की अपेक्षा अवधिज्ञान जघन्य से दो-तीन तथा उत्कर्ष से सात-आठ भवों का जानता है।।
दूसरे के मन में स्थित विषय को जो जानता है, वह मनःपर्यय ज्ञान है। इसका जो आवरण करता है, वह मनःपर्यय ज्ञानावरण कर्म है। मनःपर्ययज्ञान के दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति। पैंतालीस लाख योजन के भीतर के चित्तगत स्थित पदार्थ को मनःपर्ययज्ञान जानता है। मनःपर्ययज्ञान पराधीन ज्ञान नहीं है। वर्तमान काल में जीवों के मन में स्थित सरल मनोगत, वचनगत और कायगत पदार्थ को जो जानता है, वह ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान है। जिसकी मति विस्तीर्ण है, वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है। द्रव्य की अपेक्षा वह जघन्य रूप से चक्षु इन्द्रिय की निर्जरा को जानता है। कालकी अपेक्षा जघन्य से सात-आठ भवों को
और उत्कृष्ट से असंख्यात भवों को जानता है। श्रेत्र की अपेक्षा जघन्य से योजनपृथक्त्वप्रमाण (आठ-नौ घन योजन प्रमाण) क्षेत्र को जानता है। भाव की अपेक्षा जो भी द्रव्य इसे ज्ञात है उस-उसकी असंख्यात पर्यायों को जानता है। ऋजुमति में इन्द्रियों और मन की अपेक्षा होती है; किन्तु विपुलमति में उनकी अपेक्षा नहीं होती है।
केवलज्ञान सम्पूर्ण तथा अखण्ड है। खण्डरहित होने से वह सकल है। पूर्ण रूप से विकास को प्राप्त होने से उसे सम्पूर्ण कहा गया है। कर्म-शत्रुओं का अभाव होने से वह असपत्न है। केवलज्ञान का विषय तीनों कालों और तीनों लोकों के सम्पूर्ण पदार्थ माने गये हैं। यथार्थ में केवलज्ञान की स्वच्छता का ऐसा परिणमन है कि तीनों लोकों व तीनों कालों के जितने पदार्थ हैं वे सब एक साथ एक समय में केवलज्ञान में झलकते हैं। लोक में ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। अतः ज्ञान का धर्म ज्ञेय को जानना है और ज्ञेय का स्वभाव ज्ञान का विषय होना है। इन दोनों में विषय-विषयीभाव का सम्बन्ध है। लेकिन सर्वज्ञ का ज्ञान सम्पूर्ण सम्बन्धों से रहित परम स्वाधीन है। फिर, ज्ञान ज्ञान-चेतना से निकलकर बाहर जाता नहीं है और ज्ञेय कभी भी ज्ञान में प्रवेश करता नहीं है। अतएव केवलज्ञान असहाय है. उसे मन और इन्द्रियों की तथा ज्ञेय द्रव्यों की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं होती है। यही कारण है कि केवलज्ञानी का ज्ञान युगपत् (एक साथ) सब को जानता है; क्रमवार नहीं। लेकिन एक साथ तीनों लोकों, तीनों कालों के सभी द्रव्यों, उनके गुणों और पर्यायों को जानने पर भी ज्ञान सीमित नहीं होता, बल्कि व्यापक हो जाता है।
कर्म की सामान्य प्रकृत्तियाँ १४८ हैं। इनके विशेष भेद किये जायें, तो अनन्त भेद हो जाते हैं। ओघसे ५ ज्ञानावरण तथा ५ अन्तराय की प्रकृतियों का सर्वबन्ध होता है। आयुकर्म को छोड़कर सातों कर्मों की प्रकृतियों का निरन्तर बन्ध होता है। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगों के निमित्त से कर्म उत्पन्न होते हैं और कर्मों के निमित्त से जाति, बुढ़ापा, मरण और वेदना उत्पन्न होते हैं। शुभाशुभ कर्मों का विपाक प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग इन चार भागों में विभक्त है। जीवों को एक और अनेक जन्मों में पण्य तथा पाप कर्म का फल प्राप्त होता है।
धर्मध्यान कषायसहित जीवों के होता है। जिनदेव का उपदेश है कि असंयत सम्यग्दृष्टि के धर्मध्यान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org