________________
विषय- परिचय
११७
होता है। (षट्खण्डागम, वर्गणाखण्ड ५, ४, २६) प्रथमोपशम सम्यक्त्व में मिथ्यात्व गुणस्थान सम्बन्धी १६ और सासादन गुणस्थान सम्बन्धी २५ प्रकृतियों का अभाव होने से बन्ध योग्य ७७ प्रकृतियाँ कही गयी हैं । द्वितीयोपशम सम्यक्त्व में सातवें गुणस्थान से ग्यारहवें पर्यन्त आरोहरण कर जब उतरकर चौथे गुणस्थान में आता है, तब भी ७७ प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व की भाँति मनुष्यायु और देवायु का अभाव होता है ।
दर्शनावरण, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी, तिर्यंचगति त्रिक का जघन्य बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। 'कर्मस्थिति' शब्द से केवल दर्शनमोहनीय की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति का ग्रहण हुआ है। उस में सब कर्मों की स्थिति संगृहीत है । ( महाबन्ध, भा. १, पृ. ६३) अनन्तानुबन्धी का सासादन पर्यन्त बन्ध होता है, किन्तु मिथ्यात्व का प्रथम गुणस्थान पर्यन्त ।
'महाबन्ध' के प्रथम भाग का 'प्रकृतिबन्धाधिकार' षट्खण्डागमके वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत बन्धनीय अर्थाधिकार में २३ पुद्गल वर्गणाओं की प्ररूपणा में विवेचित है। मिथ्यादर्शन, असंयमादि परिणाम विशेष से कार्मणवर्गणा के परमाणु कर्म रूप से परिणत होकर जीवप्रदेशों के साथ सम्बद्ध होते हैं जिसे 'प्रकृतिबन्ध ' कहते हैं। इस प्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा २४ अनुयोग द्वारों में की गयी है जो इस प्रकार है
१. प्रकृति समुत्कीर्तन - इस अनुयोगद्वार में कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा है । महाबन्ध के इस भाग में ज्ञानावरणीय की उत्तर तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा अनुयोगद्वार के समान प्ररूपित है ।
२-३. सर्वबन्ध-नोसर्वबन्ध - इन दो अनुयोगद्वारों में ज्ञानावरणादि कर्म-प्रकृतियों के विषय में सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध की प्ररूपणा की गयी है। जिस कर्म की जब अधिक से अधिक प्रकृतियाँ एक साथ बँधती हैं, तब उनके बन्ध को सर्वबन्ध कहते हैं । उदाहरण के लिए, ज्ञानावरण की पाँच प्रकृतियाँ और अन्तराय की पाँच प्रकृतियाँ दोनों अपनी बन्ध-व्युच्छित्ति होने तक सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान तक साथ-साथ बँधती हैं, इसलिए इन दोनों कर्मों का सर्वबन्ध है। दर्शनावरण की नौ प्रकृतियाँ दूसरे गुणस्थान तक साथ-साथ बँधती हैं, इसलिए उसका दूसरे गुणस्थान तक सर्वबन्ध । दूसरे गुणस्थान में निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला तथा स्त्यानगृद्धि इन तीन की बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाने से उसके बाद के अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक छह प्रकृतियाँ बँधती हैं, इसलिए उसका यह नोसर्वबन्ध है । इसी प्रकार प्रथम भाग में निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों के व्युच्छिन्न हो जाने पर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक उसकी चार प्रकृतियाँ बँधती हैं जो दर्शनावरण का नोसर्वबन्ध है । वेदनीय, आयु और गोत्र इन तीन कर्मों का नोसर्वबन्ध ही होता है । इसका कारण यह है कि एक समय में इन कर्मों की एक प्रकृति का ही बन्ध सम्भव है ।
४-७. उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध और अजघन्यबन्ध ये प्रकृतिबन्ध में सम्भव नहीं हैं । ८- ६. सादि-अनादिबन्ध - किसी कर्मप्रकृति के बन्ध का अभाव हो जाने पर पुनः उसका बन्ध होना सादिबन्ध कहा जाता है। जैसे कि ज्ञानावरण की ५ प्रकृतियों का बन्ध सूक्ष्मसाम्पराय तक होता है । जो जीव इस गुणस्थान में बन्ध-व्युच्छित्ति करके उपशान्तकषाय हुआ है, उसके वहाँ उनके बन्ध का अभाव हो गया। परन्तु जब उपशान्तकषाय से गिरकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में आता है, तब उन प्रकृतियों का पुनः बन्ध होने लगता है । इसे सादिबन्ध कहते हैं ।
जब तक जीव श्रेणि पर आरोहण नहीं करता, तब तक उसके अनादिबन्ध होता रहता है । सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक अनादिबन्ध कहा गया है। इसी प्रकार अन्य कर्मों के सम्बन्ध में भी सादि-अनादि बन्ध का विचार किया गया है।
१०-११. ध्रुव-अध्रुवबन्ध - अभव्य जीव के जो बन्ध होता है वह ध्रुवबन्ध है, क्योंकि उसके अनादिकाल से होने वाले उस कर्मबन्ध का कभी अभाव होने वाला नहीं है । किन्तु भव्य जीवों का कर्मबन्ध अध्रुवबन्ध है. क्योंकि उनके कर्मबन्ध का अभाव हो सकता है।
१२. बन्ध-स्वामित्वविचय - इस प्रकरण का ओघ तथा आदेश से दो प्रकार का निर्देश किया गया है।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org