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________________ ११८ महाबन्ध ओघ की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगकेवली पर्यन्त चौदह जीव-समास-गुणस्थान होते हैं। इन में प्रकृतिबन्ध की व्युच्छित्ति कही गई है। बन्ध-व्युच्छित्ति प्राप्त प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं मिथ्यात्व में १६, सासादन में २५, अविरत में १०, देशविरत में ४, प्रमत्तसंयत में ६, अप्रमत्तसंयत में १, अपूर्वकरण में ३६, अनिवृत्तिकरण में ५, सूक्ष्मसाम्पराय में १६, सयोगकेवली में १-इस प्रकार इन १० गुणस्थानों के जीव बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं। मनुष्यगति में मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थान हैं। कर्म-बन्ध के योग्य १२० प्रकृतियाँ हैं। इनका वर्णन ओघवत् किया गया है। इनमें विशेष यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थंकर, आहारक द्विकका बन्ध न होने से शेष ११७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। सासादन गुणस्थान में मिथ्यात्वादि १६ प्रकृतियों का बन्ध न होने से १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिश्र गुणस्थान में ६६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि के देवायु तथा तीर्थकर का बन्ध प्रारम्भ हो जाने से ७१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। देशविरत में अप्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध न होने से ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। प्रमत्त गुणस्थान में प्रत्याख्यानावरण ४ का बन्ध न होने से ६३ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अप्रमत्तसंयत के अस्थिर, असाता, अशुभ, अरति, शोक, अयश कीर्ति इन छह का बन्ध नहीं होता, किन्तु आहारकद्विकका बन्ध होने से ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अपूर्वकरण में देवायु का बन्ध न होने से ५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है। अनिवृत्तिकरण में बन्ध योग्य २२ प्रकृतियाँ हैं। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में अनिवृत्तिकरण की पुरुषवेद और ४ संज्वलन कषायों की बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाने से १७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उपशान्तकषाय में एक सातावेदनीय का ही बन्ध होता है। क्षीणकषाय और सयोगी जिन के एक सातावेदनीय का ही बन्ध कहा गया है। अयोगकेवली के कोई बन्ध नहीं होता। ___ इनके अतिरिक्त बारह अनुयोगद्वारों में भी उल्लेख किया गया है। उन अनुयोगद्वारों के नाम इस प्रकार १३. एक जीव की अपेक्षा काल-प्ररूपणा, १४. एक जीव की अपेक्षा अन्तरानुगम प्ररूपणा, १५. सन्निकर्ष-प्ररूपणा, १६. भंगविचय-प्ररूपणा, १७. भागाभागानुगम-प्ररूपणा, १८. परिमाणानुगम-प्ररूपणा, १६. क्षेत्रानुगम-प्ररूपणा, २०. स्पर्शनानुगम-प्ररूपणा, २१. अनेक जीवों की अपेक्षा कालानुगम प्ररूपणा, २२. नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरानुगम प्ररूपणा, २३. भावानुगम-प्ररूपणा, २४. अल्पबहुत्वानुगम-प्ररूपणा इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वारों में कर्म की मूल और उत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा के समान प्रकृत प्रकृतिबन्धाधिकार (महाबन्ध) में प्रकृत्ति अनुयोगद्वार के समान ज्ञानावरणीय प्रकृतियों के प्रसंग से उत्तर प्रकृतियों तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा की गई है। प्रकृतिअनुयोगद्वार में जिन गाथा-सूत्रों का उपयोग किया गया है, 'महाबन्ध' की इस पुस्तक में भी आगे-पीछे वे ही प्रयुक्त हैं। (महाबन्ध, १, पृ. २१-२३) -देवेन्द्रकुमार शास्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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