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महाबन्ध विनत पर आप दयाभाव धारण करके तत्काल मेरे दःखों के अंकरों को उच्छेद करने की कृपा
___ भगवज्जिनसेन स्वामी ने 'सहस्रनाम पाठ' में जिनेन्द्र भगवान् को पुण्यगी अर्थात् पुण्यवाणी युक्त, पुण्यवाक् पुण्यनायक, पुण्यधी, पुण्यकृत्, पुण्यशासन आदि नामयुक्त बताया है
"गुणादरी गुणोच्छेदो निर्गुणः पुण्यगीर्गुणः। शरण्यः पुण्यवाक् पूतो वरेण्यः पुण्यनायकः ॥ अगण्यः पुण्यधीगण्यः पुण्यकृत्पुण्यशासनः।
धर्मारामो गुणग्रामः पुण्यापुण्य-निरोधकः" ॥ -महाशोकध्वजादिशतकम्, ४-५ भगवान् को पुण्यराशि भी कहा है
"शुभंयुः सुखसाद्भूतः पुण्यराशिरनामयः।
धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥ -दिग्वासादिशतम्, १० अनेकान्त शैली का मर्म न समझकर कोई-कोई निश्चयाभासी व्रतशुन्य गृहस्थ पुण्य को पाप के समान घृणा योग्य मानते हुए पुण्य को छोड़कर पाप की ओर प्रवृत्त होते हुए ऐसे लगते हैं, मानो वे गंगा को छोड़कर वैतरिणी की ओर प्रवृत्ति करते हैं अथवा अमृतघट को फोड़कर विषकुम्भ के रस को प्रेम तथा श्रद्धा से सेवन करते हैं।
पुण्य के फल की कथा विकथा नहीं है। वह तो धर्मकथा का अंग है, उसे संवेदनी कथा कहा है। “काणि पुण्णफलाणि? तित्थयर-गणहर-रिसिचक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहर-रिद्धाओ” (ध.टी. १,१०५)
पण्य के फल क्या हैं? तीर्थंकर. गणधर. ऋषि. चक्रवर्ती, बलदेव, वासदेव, सर, विद्याधर की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं। इन पुण्यफलों की प्राप्ति शुभोपयोग से होती है।
जिनेन्द्रदेव की आराधना-द्वारा पुण्य की प्राप्ति होती है। भरत चक्रवर्ती ने समवसरण में जाकर आदिनाथ भगवान् का स्तवन करते हुए कहा था
"भगवंस्त्वद् गुणस्तोत्राद् यन्मया पुण्यमर्जितम् ।
तेनास्तु त्वत्पदाम्भोजे परा भक्तिः सदापि मे ॥" -आ. जिनसेन, आदिपुराण, प. ३३,१६६ हे भगवान् ! आपके गुणस्तवन-द्वारा जो मैंने पुण्य प्राप्त किया है, उसके फलस्वरूप आपके चरण कमलों में मेरी सदा श्रेष्ठ भक्ति होवे। भगवज्जिनसेन की यह वाणी इस विषय के अज्ञानान्धकार को दूर कर देती है कि विवेकी गृहस्थ को पुण्यरूपी वृक्ष का रक्षण करना चाहिए या उसका उच्छेद करके पाप रूप विष का वृक्ष बोना चाहिए। आचार्य जिनसेन कहते हैं
"पुण्याच्चक्रधर-श्रियं विजयिनीमैन्द्रीं च दिव्यश्रियं पुण्यात्तीर्थकरश्रियं च परमां नैःश्रेयसी चाश्नुते। पुण्यादित्यसुभृच्छ्रियां चतसृणामाविर्भवेद् भाजनं
तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याग्जिनेन्द्रागमात् ॥"-आदिपुराण, प. ३०, श्लोक १२६ पुण्य से सर्वविजयिनी चक्रवर्ती की लक्ष्मी प्राप्त होती है। पुण्य से इन्द्र की दिव्यश्री प्राप्त होती है। पुण्य से ही तीर्थंकर की लक्ष्मी प्राप्त होती है तथा परम कल्याणरूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्य से प्राप्त होती है। इस प्रकार पुण्य से ही जीव चार प्रकार की लक्ष्मी को प्राप्त करता है। इसलिए हे सुधीजनो! तुम लोग भी जिनेन्द्र भगवान के पवित्र आगमन के अनुसार पुण्य का उपार्जन करो।
प्रश्न-आगम में पण्य प्राप्ति का क्या उपाय कहा है? यह प्रश्न उत्पन्न होता है। समाधान-महाकवि जिनसेन इस विषय का समाधान इस महत्त्वपूर्ण पद्य-द्वारा करते हैं
"पुण्यं जिनेन्द्र-परिपूजनसाध्यमाद्यं
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