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________________ प्रस्तावना अन्यत्परं प्रभवतीहं निमित्तमात्रं पात्रं बुधा भवत निर्मलपुण्यराशेः ॥” – पद्मनन्दिपंचविंशविक्रका, श्लोक १७ पुण्य के होने पर दूर से भी अभीष्ट वस्तु का लाभ होता है। पुण्य के बिना अर्थात् पापोदय होने पर हाथ में रखी हुई वस्तु भी उपयोग में नहीं आ पाती। पुण्य को छोड़कर अन्य सामग्री निमित्तमात्र है । अतः विवेकियो ! निर्मल पुण्य की राशि के पात्र बनो; अर्थात् पवित्र पुण्य का संग्रह करो । वे पुनः कहते हैं “ग्रामान्तरं व्रजति यः स्वगृहाद् गृहीत्वा पाथेयमुत्रततरं स सुखी मनुष्यः । जन्मान्तरं प्रविशतोऽस्य तथा व्रतेन दानेन चार्जितशुभं सुखहेतुरेकम् ॥” - वही, श्लोक २६ जो व्यक्ति अपने घर से देशान्तर को जाते समय बढ़िया पाथेय - ( कलेवा) साथ में रखता है, वह सुखी रहता है। इसी प्रकार इस भव को छोड़कर अन्य भव में यदि सुख चाहिए तो व्रत पालन और पात्रदान करो । इससे प्राप्त किया गया शुभ अर्थात् पुण्य ही सुख का हेतु होगा । उनका यह कथन विशेष ध्यान देने योग्य है Jain Education International "नार्थः पदात्पदमपि व्रजति त्वदीयो व्यावर्तते पितृवनादपि बन्धुवर्गः । दीर्घे पथि प्रवसतो भवतः सखैकं पुण्यं भविष्यति ततः क्रियतां तदेव ॥” - वही, श्लोक ४३ ६१ अरे जीव! तेरा धन एक डग भी तेरे साथ नहीं जाता है । बन्धुवर्ग श्मशान तक जाकर लौट जाते हैं । एक तेरा मित्र पुण्य ही तेरे साथ दूर तक जाएगा। इससे उस पुण्य को प्राप्त करो। आचार्य के ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं । “पुण्यं भवतः सखा भविष्यति” - पुण्य ही तेरा मित्र रहेगा, क्योंकि वह तेरा साथ देगा। वे महान् आचार्य जिनेन्द्र की स्तुति करते समय अपने को “पुण्य-निलयोऽस्मि ” – मैं पुण्य का घर हूँ, ऐसा कहते हैं। “धन्योऽस्मि पुण्यनिलयोऽस्मि निराकुलोऽस्मि शान्तोऽस्मि नष्टविपदस्मि विदस्मि देव | श्रीमज्जिनेन्द्र भवतोऽङ्घ्रियुगं शरण्यं प्राप्तोऽस्मि चेदहमतीन्द्रिय- सौख्यकारि ॥६॥” – क्रियाकाण्डचूलिका । हे जिनेन्द्र ! मैं अतीन्द्रिय आनन्द के प्रदाता आपके चरणों की शरण को प्राप्त हुआ हूँ, इससे मैं धन्य हूँ। मैं पुण्य का भवन हूँ। मैं निराकुल हूँ। मैं शान्त हूँ। मैं संकटमुक्त हो गया हूँ तथा मैं ज्ञानवान् बन गया हूँ । 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' में जिनेन्द्र भगवान् को करुणा तथा पुण्य की निवास भूमि कहा है " त्वं नाथ ! दुःखि - जन-वत्सल हे शरण्य! कारुण्य- पुण्यवसते वशिनां वरेण्य ! | भक्त्यानते मयि महेश दयां विधाय दुःखाङ्कुरोद्दलन - तत्परतां विधेहि ॥३६॥ हे स्वामिन्! आप दुःखी जीवों के प्रति प्रेमभाव धारण करते हैं, अतः आप दुःखीजनवत्सल हैं। हे शरण्यरूप भगवन्! हे करुणा और पुण्य की निवासभूमि, जितेन्द्रियों के शिरोमणि महेश, भक्तिपूर्वक मुझ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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