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महाबन्ध
चतुर व्यक्ति नहीं कहा जाएगा। अशुभोपयोग के विषय में 'प्रवचनसार' में इस प्रकार कथन किया गया
“असुहोदयेण आदा कुणरो तिरियो भवीय रइयो।
दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिंधुदो भमदि अच्वंतं ॥" -प्रवचनसार, १,१२ अशुभोपयोग परिणति के द्वारा आत्मा दीन-दुःखी मनुष्य, तिर्यंच तथा नारकी होकर हजारों दुःखों से दुःखी होता हुआ संसार में निरन्तर भ्रमण करता है।
अशुभोपयोग के कारण संचित पापोदयवश जीव इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग, पीड़ाचिन्तवन आदि मलिन सामग्री को प्राप्त कर संक्लेशभाव-द्वारा पुनः पाप का बन्ध करता है।
पुण्य-पाप में समानता तथा भित्रता-संसर के कारणपने की अपेक्षा यद्यपि शुभोपयोग तथा अशुभोपयोग और उनके द्वारा प्राप्त पुण्य तथा पाप समान हैं, किन्तु उनमें दूसरी अपेक्षा से महान् भिन्नता है। पूर्ण ब्रह्मचर्य की अपेक्षा विचार करने पर स्वस्त्रीसन्तोष तथा परस्त्रीसेवन दोनों में स्त्री के सम्पर्क का त्याग नहीं है, किन्तु जैसे उन दोनों के फल को देखकर उनको भिन्न माना जाता है, उसी प्रकार अशुद्धोपयोग की अपेक्षा शुभ और अशुभ उपयोग यद्यपि समान हैं, किन्तु उनमें महान् भित्रता भी है। अध्यात्म शास्त्र में निश्चय नय की मुख्यता से शुद्धोपयोग को आदर्श मानकर अन्य उपयोगों को हेय कहा है; किन्तु निर्विकल्प समाधि में असमर्थ व्यक्ति की दृष्टि से शुभोपयोग और अशुभ उपयोग में भिन्नता माननी होगी। अमृतचन्द्रसूरि ने 'तत्त्वार्थसार' में कहा है
"हेतु-कार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्य-पापयोः।
हेतु शुभाशुभौ भावी कार्ये चैव सुखासुखे ॥"-तत्त्वार्थसार आस्रवतत्त्व, श्लोक १०३ साधन और फल की भिन्नता से पुण्य तथा पाप में भिन्नता है। पुण्य और पाप के कारण भिन्न-भिन्न हैं। पुण्य का कारण शुभ परिणाम है, पाप का कारण अशुभ परिणाम है। पुण्य का फल इन्द्रियजनित सुख की उपलब्धि है तथा पाप का फल दुःख की प्राप्ति है। तात्त्विक बात-कुन्दकुन्द स्वामी ने 'वारसाणुवेक्खा' में यह महत्त्वपूर्ण कथन किया है
"सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स।
सुहजोगस्स गिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि ॥" -वारसाणुवेक्खा, गा. ६३ शुभ योगों में प्रवृत्ति होने पर अशुभ योग का संवर होता है। शुभ योग का संवर शुद्धोपयोगरूप परमसमाधि-द्वारा सम्भव है। सामान्यतया अध्यात्मशास्त्र का ऊपरी पल्लवग्राही परिचय प्राप्त व्यक्ति पूजा, दान, स्वाध्याय आदि सत्कार्यों को शुभोपयोगरूप कहकर उसके विरुद्ध अमर्यादित आक्षेपपूर्ण शब्द कहता है, किन्तु वह स्वयं को विकथा, पंचपाप, सप्तव्यसन आदि अशुभोपयोग के महान् दूतों के हाथों में सौंपता है। उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि शुभोपयोग शुद्धोपयोग के द्वारा रुकेगा। शुद्धोपयोगरूप अभेद रत्नत्रय की आराधना महान् मुनीन्द्रों को भी कठिन है, परिग्रही गृहस्थ को वह उसी प्रकार असम्भव है, जिस प्रकार देव पर्यायवाले जीव को मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। इसी कारण भव्य जीवों के कल्याणार्थ आचार्यों ने शुभोपयोग-द्वारा पुण्यसंचय को प्रशस्त मार्ग कहा है। हिन्दी के कुछ लेखकों और कवियों ने पुण्यबन्ध और शुभोपयोग के विरुद्ध इतना अतिरेकपूर्ण प्रतिपादन किया है कि वह एकान्तवाद की सीमा का स्पर्श कर जाता है।
पुण्य-संचय की प्रेरणा-अध्यात्मशास्त्र के मार्मिक आचार्य पद्यनन्दि भव्य जीव को पुण्यसंचय के लिए प्रेरणा करते है। अपनी 'पंचविंशतिका' के दानपंचाशत् अध्याय में वे कहते हैं
“दूरादभीष्टमभिगच्छति पुण्ययोगात् पुण्याद्विनाकरतलस्थमपि प्रयाति।
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