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प्रस्तावना
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के ही होता है। आत्मसमाधि में स्थित परमध्यानी मुनिराज के ही शुद्धोपयोग होता है। सरागसंयमी अवस्था में मुनिराज के शुद्धोपयोग नहीं होता है। अतः गृहस्थावस्था में शुद्धोपयोग की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जब सरागी सकलसंयमी महाव्रती भावलिंगी मुनीश्वर के शुद्धोपयोग का अभाव है, तब असंयमी अथवा देशसंयमी श्रावक के शुद्धोपयोग का अभाव स्वयमेव सिद्ध होता है। "निर्विकल्प समाधिरूप-शुद्धोपयोगशक्त्यभावे सति यदा शुभोपयोगरूप-सरागचारित्रेण परिणमति, तदाऽपूर्वमनाकुलत्वलक्षण-पारमार्थिकसुखविपरीतमाकुलत्वोत्पादक स्वर्गसुखं लभते, पश्चात् परमसमाधि-सामग्रीसद्भावे मोक्षं च लभते"-निर्विकल्प समाधि (अभेदरत्नत्रयरूपपरिणति) रूप शुद्धोपयोग की सामर्थ्य के अभाव होने पर जब वह जीव शुभोपयोग रूप (भेदरत्नत्रय रूप परिणति) सराग चारित्र को धारण करता है, उस समय वह अपूर्व, अनाकुलतास्वरूप परमार्थ सुख के विपरीत आकुलता का उत्पादक स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है। इसके अनन्तर वह परम समाधि (शुद्धोपयोग) को सामग्री का लाभ होने पर मोक्ष को भी प्राप्त करता है। इससे अमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं कि शुद्धोपयोग परिणतिके द्वारा निर्वाण का सुख प्राप्त होता है, अतः “शुद्धोपयोग उपादेयः” -शुद्धोपयोग उपादेय है। सविकल्प अवस्थारूप भेद रत्नत्रयस्वरूप शुभोपयोग से आकुलता उत्पादक स्वर्ग का सुख प्राप्त होता है, निर्वाण का सुख नहीं मिलता है; इससे 'शुभोपयोगो हेयः' मुनिराज के लिए कथंचित् शुभोपयोग हेय है। (प्रवचनसार, १.११, पृ. १३)
हेय तथा उपादेय उपयोग-मुनि अवस्था में शुद्धोपयोग और शुभोपयोग दोनों होते हैं, अतः उस अपेक्षा से उपादेय तथा हेय का कथन किया गया है। गृहस्थावस्था में शुद्धोपयोग की पात्रता ही नहीं है; अतः उसकी अपेक्षा एकमात्र शुभोपयोग आश्रय योग्य होगा। शुभोपयोग कथंचित् हेय है, तो कथंचित् उपादेय भी है। निर्विकल्प समाधि निमग्न महामुनि की अपेक्षा शुभोपयोग हेय है, किन्तु उस उच्च ध्यान की प्राप्ति में असमर्थ मुनिराज के लिए शुभोपयोग उपादेय है। ऐसी स्थिति में गृहस्थ के लिए शुभोपयोग को हेय नहीं कहा जा सकता है। परम हेयरूप गृहस्थ की दशा है। उस स्थिति को ध्यान में रखते हुए उस आर्त, रौद्रध्यान के जाल में जकड़े हुए जीव का उद्धार शुभोपयोग के द्वारा ही होगा। यदि शुद्धोपयोग को उपादेय मानते हुए परिग्रह तथा पापाचार के त्याग से विमुख गृहस्थ ने शुभोपयोग को हेय सोचकर उसे छोड़ दिया, तो अशुभोपयोग के द्वारा उस गृहस्थ की दुर्गति होगी। अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं, “अत्यन्त हेय एवायमशुभोपयोगः”-अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है। शुद्धोपयोग उपादेय है। उसकी अपेक्षा शुभोपयोग हेय है, किन्तु अशुभोपयोग अत्यन्त हेय है। ऐसी स्थिति में अशुभोपयोग की अपेक्षा शुभोपयोग उपादेय है। बुद्धिमान् व्यक्ति अत्यन्त हेय अशुभ का त्याग कर शुभ का आश्रय लेता है, क्योंकि वह Lesser art अपेक्षाकृत अल्प दोषरूप है।
उदाहरणार्थ-सत्परुष को ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिए। वह श्रेष्ठ व्रत है. किन्त जिसकी आत्मा पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन में असमर्थ है, उसे स्वस्त्रीसन्तोषव्रती बनने का कथन किया जाता है। यदि वह पर-स्त्री सेवन में प्रवृत्ति करता है, तो सत्पुरुष उसे महापापी कहते हैं। यद्यपि दोनों ही ब्रह्मचर्य व्रत पालन नहीं करते हैं और ब्रह्मचर्य की अपेक्षा स्त्रीमात्र का सेवन हेय है, किन्तु असमर्थ व्यक्ति की अपेक्षा स्वदारसन्तोषव्रती को शीलवान् कहकर उसकी स्तुति की जाती है तथा उसको परस्त्री सेवन का त्यागी होने से आदर का पात्र मानते हैं। इस उदाहरण के प्रकाश में शुद्धोपयोग ब्रह्मचर्य के समान परम उपादेय है। शुभोपयोग स्वदारसन्तोषव्रत के समान कथंचित् उपादेय है तथा अशुभोपयोग परस्त्री सेवन रूप महापाप के समान सर्वथा हेय है-अत्यन्त हेय है। स्वदारसंतोषी तथा परस्त्रीसेवी इन दोनों में स्त्रीसेवनरूपताका सद्भाव होते हुए भी स्वस्त्रीसंतोषी गृहस्थ की अवस्था उपादेय है। किन्तु परस्त्रीसेवन का कार्य अत्यन्त निषिद्ध है। इसी प्रकार अशुद्धोपयोगपना शुभ तथा अशुभ उपयोग में है, किन्तु गृहस्थ के लिए शुभ उपयोग उपादेय है तथा अशुभ उपयोग सर्वथा हेय है। दोनों को समान मानकर अशुभ की प्रवृत्ति से विमुख न होनेवाला अपार कष्ट पाता है। शीलवती सीता स्वर्ग गयी। कुशील परिणामवाला रावण नरक गया। दोनों को एक समान मानने वाला
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