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महाबन्ध
कर्मों के आस्रव का कारण योग है।
इस जीव के कर्मबन्धन का कारण रागादिभावों को कहा है : कर्मों के आगमन में कारण-आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्दन होना । मनोवर्गणा, वचनवर्गणा अथवा कायवर्गणा के अवलम्बन से आत्मप्रदेशों में सकम्पपना पाया जाता है । मन, वचन, काय का क्रियारूप योग के द्वारा नवीन कर्मों का आस्रव - आगमन तथा जीव के साथ संयोग होता है। योगों के त्रयात्मक भेदों पर प्रकाश डालते हुए आचार्य वीरसेन धवलाटीका (१,२७६) में लिखते हैं- “कः पुनः मनोयोग इति चेद्भावमनसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो मनोयोगः । तथा वचसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः । कायक्रियासमुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नः काययोगः । " - "मनोयोग का क्या स्वरूप है? भावमन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे मनोयोग कहते हैं। इसी प्रकार वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे वचनयोग कहते हैं और काय की क्रिया की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे काययोग कहते हैं।' यह योग ध्यानरूप योग से भिन्न है ।
पुण्य-पाप का विश्लेषण
प्रश्न - 'सर्वार्थसिद्धि' में यह शंका की गयी है कि जिस योग के द्वारा पुण्य कर्म का आस्रव होता है, उसी योग के द्वारा क्या पाप का आस्रव होता है?
समाधान-‘शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य' (त. सू. ६, ३) - शुभयोग के द्वारा पुण्य का आस्रव होता है तथा अशुभयोग के द्वारा पाप का आस्रव होता है। शुभयोग अशुभयोग की परिभाषा 'सर्वार्थसिद्धि' में इस प्रकार की गयी है- “ शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः " - शुभ परिणामों से रचित योग शुभ है तथा अशुभ परिणामों के द्वारा रचित योग अशुभ है जिस शुभ परिणाम के द्वारा पुण्य का आस्रव होता है, उसके विषय में कुन्दकुन्द स्वामी ने 'प्रवचनसार' में इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है
“देवद - जदि - गुरु- पूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु ।
उपवासादिसु रत्तो सुहोवओगप्पगो अप्पा ॥” – प्रवचनसार १,६६
जिनेन्द्र भगवान् रूप देवता, इन्द्रियजय के द्वारा शुद्धात्म स्वरूप के विषय में तत्पर यति (इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूप प्रयत्नपरो यतिः), स्वयं भेदाभेदरूप रत्नयत्रय के आराधक तथा उस रत्नत्रय के आकांक्षी भव्यों को जिनदीक्षा देनेवाले गुरु (स्वयं भेदाभेद - रत्नत्रयाराधकस्तदर्थिनां भव्यानां जिनदीक्षादायको गुरुः) तथा उनकी प्रतिमा की द्रव्य तथा भावरूप पूजा ( द्रव्य भावरूपा पूजा), चार प्रकार का दान देना, शीलव्रतादि का परिपालन तथा उपवासादि शुभ अनुष्ठानों में जो व्यक्ति अनुरक्त होता है तथा अशुभ अनुष्ठानों से विरत रहता है, वह जीव शुभ उपयोगवाला होता है ।
जीवघात, चोरी आदि अशुभ कार्य, सत्य, पीड़ाकारी हिंसारूप अशुभ वचन तथा ईर्ष्या, जीवबन्धादि रूप अशुभ मन से अशुभ उपयोग होता है । 'प्रवचनसार' में लिखा है
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“धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्ध संपयोगजुदो ।
पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ॥” - प्रवचनसार १,११
धर्म से परिणत आत्मा जब शुद्धोपयोग रूप परिणति को धारण करता है, तब वह निर्वाण सुख को प्राप्त करता । धर्म से परिणत आत्मा जब शुभोपयोग को प्राप्त होता है, तब वह स्वर्ग सुख को प्राप्त करता है ।
इस विषय को स्पष्ट करते हुए जयसेनाचार्य तात्पर्यवृत्ति टीका में कहते हैं- “तत्र यच्छुद्धं सम्प्रयोगशब्द वाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं वीतरागचारित्रं तेन निर्वाणं लभते " - गाथा में आगत 'शुद्ध सम्प्रयोग' शब्द के द्वारा वाच्य जो शुद्धोपयोग स्वरूप वीतराग चारित्र है, उससे निर्वाण प्राप्त होता है। वीतराग चारित्र ध्यानस्थ मुनि
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