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प्रस्तावना
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यदि जीव पूर्व में कर्म रहित माना जाए, तो उसके बन्ध का अभाव होगा । शुद्धात्मा के भी बन्ध मानने पर मुक्ति कैसे होगी ?
यहाँ आचार्य का भाव यह है कि पूर्व अशुद्धता के बिना बन्ध नहीं होगा। पूर्व में शुद्ध जीव के भी कर्मबन्ध मान लेने पर निर्वाण का लाभ असम्भव हो जाएगा। जब शुद्ध जीव कर्म बाँधने लगेगा, तब संसार का चक्र पुनः पुनः चलने से मुक्ति का अभाव हो जाएगा।
यदि पुद्गल को अनादि से शुद्ध माना जाए, तो क्या बाधा है? पंचाध्यायीकार कहते हैं
“ अथ चेत्पुद्गलः शुद्धः सर्वतः प्रागनादितः । हेतोर्विना यथा ज्ञानं तथा क्रोधादिरात्मनः ॥
एवं बन्धस्य नित्यत्वं हेतोः सद्भावतोऽथवा ।
द्रव्याभावो गुणाभावे क्रोधादीनामदर्शनात् ! ॥ - पञ्चाध्यायी, २, ३८-३६
- यदि पुद्गल को अनादि से शुद्ध मान लिया जाए तो जैसे बिना कारण के स्वभावतः जीव में ज्ञान पाया जाता है, उसी प्रकार क्रोधादि भी जीव के स्वभाव या गुण हो जाएँगे । क्रोधादि के सदा सद्भाववश बन्ध में नित्यता आ जाएगी। अथवा यदि क्रोधादि गुणों का अभाव माना जाएगा, तो स्वभाववान् या गुणी जीव का भी लोप हो जाएगा। क्रोधादि का अदर्शन पाया जाता है।
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यहाँ अभिप्राय यह है कि यदि कामादिक कर्मबन्ध से उत्पन्न नहीं हुए, कारण पुद्गल सदा शुद्ध रहता है, तब ऐसी स्थिति में क्रोधादिक जीव के स्वभाव हो जाएँगे। संयमी पुरुषों में क्रोधादि विकारों का अदर्शन पाया जाता है । क्रोधरूप स्वभाव का अभाव होने पर स्वभाववान् आत्मा का भी लोप हो जाएगा। अतः पुद्गल को अनादि शुद्ध मानकर क्रोधादि को जीव का स्वभाव मानना अनुचित है। क्रोधादि भावों को कर्मकृत मानना ही श्रेयस्कर है। ग्रन्थकार कहते हैं
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“पूर्वकर्मोदयाद्भावो भावात्प्रत्यग्रसंचयः ।
तस्य पाकात्पुनर्भावो भावाद् बन्धः पुनस्ततः ॥ एवं सन्तानतोऽनादिः सम्बन्धो जीवकर्मणोः ।
संसारः स च दुर्मोच्यो विना सम्यग्दृगादिना ॥” – पश्चाध्यायी, २,४२-४३
- पूर्वकर्मोदय से रागादि भाव होते हैं । उन भावों से आगामी कर्म का संचय होता है। उस कर्म विपाक से पुनः रागादिभाव होते हैं । उन भावों से पुनः बन्ध होता है। इस प्रकार जीव तथा कर्म का सम्बन्ध सन्तान की अपेक्षा अनादि है । सम्यग्दर्शनादि के बिना यह संसार दुर्मोच्य है ।
निष्कर्ष - आत्मा और कर्म का सादि सम्बन्ध स्वीकार करने पर दोषों का उद्भावन ऊपर किया जा चुका है। यह भी कहा जा चुका है कि वर्तमान आत्मा परतन्त्र है । वह कर्मों के अधीन है। यह कर्मबन्धन सादि स्वीकार करने में भयंकर आपत्तियाँ आती हैं । यदि आत्मा को शुद्ध, बुद्ध, सर्वज्ञ, आनन्दमय तथा अनन्त शक्तिमान माना जाए, तो यह प्रश्न होता है कि वह संसार के बन्धन में कैसे फँस गया? पूर्व में शुद्ध का बन्धन में आना ऐसा ही असंगत और असम्भव है, जैसे बीज के दाह किये जाने पर उससे वृक्ष का प्रादुर्भाव मानना असंगत और असम्भाव्य है । जीव की बन्धन अवस्था स्वयंसिद्ध अनुभव गोचर है। उसके लिए तर्क की जरूरत नहीं है।
ऐसी स्थिति में एक ही मार्ग निरापद बचता है कि कर्म और आत्मा का अनादि सम्बन्ध माना जाए। इसके सिवाय कोई और मध्यम मार्ग नहीं है। आत्मशक्ति के विकसित होने पर कर्मों का बन्धन शिथिल होने लगता है और शक्ति के पूर्ण प्रबुद्ध होने पर कर्मों का नाश हो जाता है। फिर वह शुद्ध जीव कर्मबन्धन में नहीं फँसता है । सर्वज्ञ तथा अनन्तशक्ति युक्त शुद्ध जीव कर्मों के जाल में फँसने का कदापि उद्योग नहीं करेगा।
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