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महाबन्ध
हैं। बीज को यदि दग्ध कर दिया जाए, तो फिर वृक्ष - परम्परा का अभाव हो जाएगा। कर्म बीज के नष्ट हो जाने पर भवांकुर की उत्पत्ति नहीं हो सकती । तत्त्वार्थसार में कहा है
“ दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः ।
कर्मबीजे तथा दग्धे न प्ररोहति भवाङ्कुरः ॥ - तत्त्वार्थसार, ८७
अकलंक स्वामी का कथन है कि आत्मा में आने वाला कर्ममल प्रतिपक्षरूप है, अतः वह आत्मगुणों के विकास होने पर क्षयशील हैं।
जैसे प्रकाश के आते ही सदा अन्धकाराक्रान्त प्रदेश से अन्धकार दूर होता है अथवा सदा शीत भूमि में गरमी के प्रकर्ष होने पर शीत का अपकर्ष होता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि के प्रकर्ष से मिथ्यात्वादिक विकारों का अपकर्ष होता है । रागादि विकारों के अपकर्ष में हीनाधिकता देखकर तार्किक समन्तभद्र कहते हैं कि ऐसी भी आत्मा हो सकती है जिसमें से रागादि का पूर्णतया क्षय हो चुका हो। २ उसे ही परमात्मा कहते हैं । ३
अनादि-सादि बन्धके विषय में अनेकान्त
प्रश्न- शंकाकार कहता है-आपका यह कथन कि 'कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः ' विचित्र कामादिक की उत्पत्ति कर्मबन्ध के अनुसार होती है', निर्दोष नहीं है। हम पूछते हैं, जीव और कर्मों का सम्बन्ध कब से है?
समाधान- द्रव्यदृष्टि अथवा सन्तति की अपेक्षा यह बन्ध अनादि है। पर्याय की अपेक्षा यह सादि कहा जाता है। पंचाध्यायीकार का कथन है
“ यथाऽनादिः स जीवात्मा यथाऽनादिश्च पुद्गलः ।
द्वयोर्बन्धोऽप्यनादिः स्यात् सम्बन्धो जीवकर्मणोः ॥” – पञ्चाध्यायी, २,३५
जिस प्रकार जीवात्मा अनादि है, उसी प्रकार पुद्गल भी अनादि है । जीव और कर्मों का सम्बन्ध रूप बन्ध भी अनादि है ।
“द्वयोरनादिसम्बन्धः कनकोपलसन्निभः ।
अन्यथा दोष एव स्यादितरेतरसंश्रयः ॥” – पञ्चाध्यायी, २,३६
जीव और कर्मों का अनादि सम्बन्ध है; जैसे सुवर्ण-पाषाण में सुवर्ण द्रव्य किट्ट, कालिमादि विशिष्ट पाया जाता है, उसी प्रकार संसारी जीव भी अशुद्ध रूप में उपलब्ध होता है। ऐसा न मानने पर अन्योन्याश्रय दोष आता है।
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" तद्यथा यदि निष्कर्मा जीवः प्रागेव तादृशः ।
बन्धाभावेऽथ शुद्धेऽपिं बन्धश्चेन्निर्वृतिः कथम् ॥” – पञ्चाध्यायी, २,३७
१. “प्रतिपक्ष एवात्मनामागन्तुको मलः परिक्षयी, स्वनिर्ह्रासनिमित्तविवर्धनवशात् ।” - अष्टशती । २. “ दोषावरणयोर्हानिर्निःशेषाऽस्त्यतिशायनात् ।
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥” - आप्तमीमांसा, कारिका ४
३. अमितगति आचार्य कहते हैं
“यो दर्शन - ज्ञान - सुखस्वभावः समस्त संसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥१३॥”
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