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प्रस्तावना
८५ है। यहाँ जीव विविध वेष धारण कर अपना अभिनय दिखाते हैं। अपना खेल दिखाने के अनन्तर वे वेष बदलते हैं। कर्मविपाक के अनुसार उनका वेष और अभिनय हुआ करता है।' विश्ववैचित्य कर्मकृत है
कोई लोग कर्मकृत विश्ववैचित्र्य को स्वीकार करते हुए भी कहते हैं-ईश्वर ही कर्मों के अनुसार इस अज्ञ जीव को विविध योनियों में पहुँचाकर दुःख और सुख देता है। महाभारत में लिखा है
“अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥* वनपर्व ३०,२८ कोई ईश्वर को सुख-दुःख का केवल निमित्त कारण मानते हैं। इस विषय में स्वामी समन्तभद्र अपनी 'आप्तमीमांसा' में कहते हैं
"कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः।
तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्ध्यशुद्धितः ॥६६॥" 'काम, क्रोध, मोहादिका उत्पत्तिरूप जो भावसंसार है, वह अपने-अपने कर्म के अनुसार होता है। वह कर्म अपने कारण रागादिकों से उत्पन्न होता है। वे जीव शुद्धता, अशुद्धता से समन्वित होते हैं।'
इस पर तार्किक पद्धति से विचार करते हुए आचार्य विद्यानन्दि 'अष्टसहस्री' में लिखते हैं कि अज्ञान, मोह, अहंकाररूप यह भाव-संसार है। यह एक स्वभाववाले ईश्वर की कृति नहीं है, कारण उसके कार्य में सुख-दुःखदि में विचित्रता दृष्टिगोचर होती है। जिस वस्तु के कार्य में विचित्रता पायी जाती है, उसका कारण एक स्वभाव विशिष्ट नहीं होता है। जैसे अनेक धान्य अंकुरादिरूप विचित्र कार्य अनेक शालिबीजादिक से उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार सुख-दुःखविशिष्ट विचित्र कार्यरूप जगत एक स्वभाव वाले ईश्वरकृत नहीं हो सकता।
जब कारण एक प्रकार का है, तब उससे निष्पन्न कार्य में विविधता नहीं पायी जाती। एक धान्य-बीज से एक ही अंकुर की उद्भूति होती है। इस प्राकृतिक नियम के अनुसार एक स्वभाव वाला ईश्वर क्षेत्र, काल तथा स्वभाव की अपेक्षा भिन्न शरीर, इन्द्रिय तथा जगत् आदि का कर्ता नहीं सिद्ध होता है। अनादि कर्मबन्ध का अन्त क्यों है?
प्रश्न-जब कर्मबन्ध और रागादिभाव का चक्र अनादि काल से चलता है, तब उसका भी अन्त नहीं होना चाहिए?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं है। कारण अनादि की अनन्तता के साथ कोई व्याप्ति नहीं है। अनादि होते हुए भी सान्तता की उपलब्धि होती है। बीज वृक्ष की सन्तति को परम्परा की अपेक्षा अनादि कहते
१. All the world's a stage,
And all the men and women merely players; They have their exits and their entrances; And one man in his time plays many parts,
Shakespeare :-AS YOU LIKE IT. Act. II, Sc. VII.. २. अष्टस., पृ. २६८-२७३। ३. “संसारोऽयं नैकस्वभावेश्वरकृतः, तत्कार्यसुख-दुःखादिवैचित्र्यात्। न हि कारणस्यैकरूपत्वके कार्यनानात्वं युक्तं
शालिबीजवत्",-अष्टशती '४. इस सम्बन्ध में विशद चर्चा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड, आप्तपरीक्षा आदि जैन ग्रन्थों में की गयी है।
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