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महाबन्ध
-"जिस प्रकार रूपादिरहित आत्मा रूपी द्रव्यों तथा उनके गुणों को जानता-देखता है, उसी प्रकार रूपादिरहित जीव पुद्गल कर्मों से बाँधा जाता है। कदाचित् ऐसा न माना जाय, तो यह शंका उत्पन्न होती है कि अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पदार्थों को क्यों देखता जानता है। निष्कर्ष यह है, अमूर्तिक आत्मा अपने विशिष्ट स्वभाव के कारण जैसे मूर्तिक पदार्थों का ज्ञाता-द्रष्टा है, उसी प्रकार वह अपनी वैभाविक शक्ति के परिणमन विशेष से मूर्तिक कर्मों के-से बन्ध को प्राप्त करता है।' वस्तुस्वभाव तर्क के अगोचर है।"
'तत्त्वार्थसार' में कहा है- “आत्मा अमूर्तिक है, फिर भी उसका कर्मों के साथ अनादिनित्य सम्बन्ध है। उसके ऐक्यवश आत्मा को मूर्तिक निश्चय करते हैं।"२ आत्मा को कर्मबद्ध मानने का कारण
कोई-कोई सोचते हैं यह हमारा भ्रम है जो हम अपनी आत्मा में कर्मों का बन्धन स्वीकार करते हैं। यथार्थ ज्ञान होने पर विदित होता है कि आत्मा कर्मादि विकारों से रहित पूर्णतया परिशुद्ध है। ऐसे विचार वालों के समाधाननिमित्त विद्यानन्दिस्वामी 'आप्तपरीक्षा' (पृ. १) में लिखते हैं
“विचार प्राप्त संसारी जीव बँधा हुआ है, कारण यह परतन्त्र है; जैसे हस्तिशाला के स्तम्भ में बँधा हुआ हाथी परतन्त्र रहता है। इसी प्रकार संसारी जीव भी पराधीन होने के कारण बँधा हुआ है।" ।
जीव की पराधीनता को सिद्ध करने के लिए आचार्य कहते हैं-“यह संसारी जीव पराधीन है, कारण इसने हीनस्थान को ग्रहण किया है। कामवासनावश श्रोत्रिय ब्राह्मण वेश्या के घर को अंगीकार वेश्या का घर निन्द्य स्थान है। वहाँ उच्च ब्राह्मण की उपस्थिति प्रमाणित करती है कि वह अपनी वासना वेग से अत्यन्त पराधीन बन चुका है। इसी प्रकार हीन स्थान को अंगीकार करने वाला संसारी जीव परतन्त्र सिद्ध होता है।"
हीनस्थान क्या है, इस पर प्रकाश डालते हैं कि "संसारी जीव का शरीर ही हीनस्थान है, कारण वह शरीर दुःख का कारण है। जैसे कारागार दुःखप्रद होने के कारण हीनस्थान माना जाता है, उसी प्रकार यह शरीर भी हीनस्थान है।"
आत्मा यदि स्वतन्त्र होता, तो वह मूत्रपुरीषभण्डाररूप इस महान् अपावन घृणित देह को अपना आवासस्थल कभी न बनाता। विवश हो जीव को इस शरीर में रहना पड़ता है। मोहवश वह फिर इसमें आसक्त हो जाता है। प्रबुद्ध पुरुष शरीर में ममत्व भाव का त्याग करते हैं। जीव को विवश करनेवाला कर्म है।
यह विश्ववैचित्र्य कर्मों के कारण दृष्टिगोचर होता है। कोई धनवान् है, कोई गरीब है, कोई बीमार है, तो कोई नीरोग है, आदि विविधताओं का कारण कर्म है।
“अहं प्रत्ययवेधत्वाज्जीवस्यास्तित्वमन्वयात् । एको दरिद्रः एको हि श्रीमानिति च कर्मणः ॥" पंचाध्यायी-२.५०
'मैं हूँ' इस प्रकार अहं प्रत्यय से जीव का अस्तित्व ज्ञात होता है। यह ज्ञान अन्वय रूप से पाया जाता है। एक दरिद्र है, एक श्रीमान्, यह भेद कर्म के कारण है।
यह आत्मा तात्त्विक दृष्टि से विचार करे, तो उससे प्रतीत होगा कि यह जगत् एक रंग-मंच के समान
१. येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादिरहितो रूपिभिः कर्मपुद्गलैः किल बध्यते, अन्यथा कथममूर्तो मूर्तं पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् (अमृतचन्दाचार्य
की टीका) २. “अनादिनित्यसम्बन्धात् सह कर्मभिरात्मनः।
अमूर्तस्यापि सत्यैक्ये मूर्तत्वमवसीयते ॥" -तत्त्वार्थसार, ५,१७
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