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महाधे
बंगा केवलिभंगो । अबंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो । इत्थ० पुरिस० बंधगा खेत्तभंगो | अधगा केवलिभंगो | णपुंस० असादभंगो । तिष्णं वेदाणं बंधगा लोगस्स असंखे० भागो सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । इत्थभंगो चदुआयु- तिण्णिगदिचदुजादि वे उव्वि० - आहार० पंचसंठा० तिणिअंगो० छस्संघ० तिणि आणु० आदाव० दोविहा० तस - सुभग० दोसर ( 3 ) [ सुस्सर] आदे० उच्चागोदं च । णवुंसक वेदभंगो हस्सर दि-अर दिसोग-तिरिक्खगदि- एइंदियजादि-ओरालि० हुडसंठा० तिरिक्खाणु० थावरपज्जत - अपजत्त० पत्तेय साधारण० थिराथिर - सुभासुभ- दूभग दुस्सर - अणादेज-णीचागोदं च । एवं पत्तेगेण साधारणेण वि वेदभंगो। परघादुस्साणं हस्तभंगो | उज्जोवस्स बंधगा सत्तचोराभागो । अबंधगा केवलिभंगो । एवं बादरजसगित्ति । सुहुम बंधगो लोगस्स असंखेज्जदिभागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो । अजसगित्तिस्स बंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो, सव्वलोगो वा । अबंधगा सत्तचोद सभागो केवलिभंगो । दोष्णं पगदीणं बंधगा लोगस्स असंखेज्जदिभागो सच्चलोगो वा । अबंधगा केवलिभंगो | तित्थयरस्स बंगा खेत्तभंगो | अबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो केवलिभंगो |
बन्धकोंका केवली-भंग है । अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग है ।
विशेष - दोनोंके अबन्धक अयोगकेवलीकी अपेक्षा असंख्यातवाँ भाग कहा है।
स्त्रीवेद, पुरुषवेदके बन्धकोंका क्षेत्रके समान भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग है । अबन्धकोंका केवली भंग है । नपुंसकवेदका असाताके समान भंग है । तीनों वेदों के बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक भंग है। अबन्धकोंका केवली भंग है । चार आयु, तीन गति, ४ जाति, वैक्रियिक, आहारक शरीर, ५ संस्थान, तीन अंगोपांग, छह संहनन, तीन आनुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर ( ? ) [ सुस्वर ], आदेय तथा उच्चगोत्रका स्त्रीवेद के समान भंग है ।
विशेषार्थ - यहाँ 'दोसर' ( दो स्वर ) के स्थान में सुस्वर पाठ सम्यक् प्रतीत होता है, कारण आगे दुस्वरका उल्लेख किया है । सुस्वर में स्त्रीवेद के समान भंग है। दुस्वर में नपुसंक वेद के समान भंग है ।
हास्य, रति, अरति, शोक, तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, हुण्डक संस्थान, तिचानुपूर्वी, स्थावर, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, नीचगोत्रका नपुंसक वेद के समान भंग है । प्रत्येक तथा सामान्य से भी वेद के समान भंग है ।
पर्घात, उच्छ्वासका हास्य के समान भंग है । अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अबन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा केवली भंग है। उद्योतके बन्धकों का १४ है । अवन्धकों का केवली भंग है । बादर तथा यशः कीर्ति में इसी प्रकार है । सूक्ष्म के बन्धकोंका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक स्पर्शन है। अबन्धकोंका केवली भंग है । अयश:कीर्तिके बन्धकका लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है। अबन्धकोंका वा केवलीभंग है । बादर, सूक्ष्म तथा यशःकीर्ति अयशःकीर्ति के बन्धकों का लोकका असंख्यातवाँ भाग वा सर्वलोक है । अवन्धकोंका केवली भंग हैं । तीर्थंकर के बन्धकोंका क्षेत्रवत् भंग है अर्थात् लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है। अबन्धकों का लोकका असंख्यातवाँ भाग वा केवलीभंग है ।
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