________________
पयडिबंधाहियारो
२३३ १६५. देवेसु-धुविगाणं बंधगा अट्ठ-णव-चोदसभागो वा। अबंधगा णत्थि । थीणगिद्धितिय-अगंताणु०४ बंधगा अढणव-चोद्दसभागो वा । अबंधगा अट्ट-चोइसभागो
१६५. देवोंमें-ध्रुव प्रकृतियों के बन्धकोंके , १४ भाग है । अबन्धक नहीं हैं।
विशेषार्थ-विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातसे परिणत मिथ्यात्व तथा सासादन गुणस्थानवर्ती देवोंने अतीतमें देशोन भाग स्पर्श किया है। मारणान्तिक समुद्घातगत मिथ्यात्वी तथा सासादन सम्यक्त्वी देवोंने ६४ भाग स्पर्श किया है ('ध० टी०, फो० पृ० २२५)। . खुद्दाबंध' टीकामें देवोंका सामान्य रूपसे स्पर्शन इस प्रकार कहा है। देवोंका वर्तमानकालिक स्पर्शन क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। देवों-द्वारा स्वस्थानकी अपेक्षा तीन लोकोंका असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग तथा अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पष्ट है।
शंका-तिर्यग्लोकका संख्यातवाँ भाग कैसे घटित होता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है। क्योंकि चन्द्र, सूर्य, बुध, बृहस्पति,शनि, शुक्र, मंगल, नक्षत्र, तारागण और आठ प्रकार के व्यन्तर विमानोंसे रुद्ध क्षेत्र तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण पाये जाते हैं। विहारकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पष्ट है । मेरु मूलसे ऊपर छह राजूमात्र और नीचे दो राजूमात्र क्षेत्रमें देवोंका विहार है, इससे भाग कहा है।
शंका-ये आठ बटे चौदह भाग किससे कम हैं “केण ते ऊणा" ? समाधान-तृतीय पृथ्वीके नीचे एक सहस्र योजनसे कम हैं।
प्रश्न-देवों-द्वारा समुद्रातकी अपेक्षा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? __ उत्तर-समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह वा नौ बटे चौदह भाग (वई,६४ भाग) स्पृष्ट हैं । लोकका असंख्यातवाँ भाग यह कथन वर्तमान क्षेत्र प्ररूपणाकी अपेक्षासे है। अतीतकालकी अपेक्षा वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा भाग स्पष्ट है। क्योंकि विहार करनेवाले देवोंके अपने विहार क्षेत्रके भीतर वेदना, कषाय, और वैक्रियिक समुद्घात रूप पद पाये जाते हैं। मारणान्तिककी अपेक्षा भाग स्पृष्ट है, क्योंकि मेरुमूलसे ऊपर सात और नीचे दो राजू मात्र क्षेत्रके भीतर सर्वत्र अतीत कालमें मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त देव पाये जाते हैं।
प्रश्न-उपपादकी अपेक्षा देवों-द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ?
उत्तर-वर्तमान क्षेत्रकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग तथा अतीत काल सम्बन्धी उपपादकी अपेक्षा देशोन भाग स्पृष्ट है। कारण "आरणच्चुदकप्पोत्ति तिरिक्ख-मणुस. असंजदसम्मादिट्ठीणं संजदासंजदाणं च उववादुवलंभादो"-आरण अच्युत कल्प पर्यन्त तिथंच व मनुष्य असंयत सम्यग्दृष्टियों और संयतासंयतोंका उपपाद पाया जाता है (खु. बं० टीका पृ० ३८२-३८४)
स्त्यानगृद्धित्रिक, अनन्तानुबन्धी ४ के बन्धकोंका है, वा ३ भाग है , अबन्धकोंका कई भाग है।
१. “देवगदीए देवेसु मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठोहि केवडिय खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अट्टणवचोद्दसभागा वा देसूणा।"-षट्खं, फो०, सू० ४२, ४३। २. "सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजद सम्मादिट्टीहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो, अट्ठ चोड्सभागा वा देसूणा ।"-पट्खं०, फो०,सू० ४४, ४५।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org