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महाघे
वा । एवं णवुंस० तिरिक्खगदि० एइंदि० हुंडसंठा० तिरिक्खाणु० थावर० दूर्भागअणादेज-गीचागोदं च । मिच्छत्तस्स दंधगा अबंधगा अट्ठणव- चोहसभागो वा । एवं उच्चागो० (१) सादासादबंधगा अबंधगा अट्ठणवचोहसभागो वा । दोष्णं पगदीणं बंधा अणव- चोद सभागो वा । अबंधगा णत्थि । एवं हस्सादिदोयुगलं थिरादि- तिण्णियुगलं च । इत्थ० पुरिस० बंधगा अट्ठचोहसभागा । अबंधगा अट्ठणव चोदसभागो वा । तिण्णं वेदाणं अष्टुणव- चोद्दस० । अबंधगा णत्थि । इत्थिभंगो दोआयुमणुसग दि-पंचिंदि० पंचसंठा० ओरालि० अंगो० छस्संघ० मणुसाणु० आदाव० दांविहाय ० तससुभग-आदेज० दोसर० तित्थयर० उच्चागोदं च (?) एवं पत्तेगेण साधारण वि वेदभंग | वरि आयुभंगो छस्संघ० दोविहाय ० दोसर० पत्तेगेण साधारणेण वि । एवं सव्वदेवाणं अष्पष्पणो फोसणं कादव्वं ।
विशेष—यहाँ स्त्यानगृद्धि आदिके अबन्धक सम्यग्मिथ्यात्वी, अविरतसम्यक्त्वी rai विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा ६४ भाग स्पर्शन है । यह विशेष है कि अविरत सम्यक्त्वी देवोंमें मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा भी भाग है ।
नपुंसकवेद, तियंचगति, एकेन्द्रिय जाति, हुण्डकसंस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, स्थावर, दुर्भाग, अनादेय तथा नीचगोत्रका इसी प्रकार हैं। मिध्यात्व के बन्धकों, अबन्धकोंका १४ वा ४ है । इसी प्रकार उच्चगोत्र में भी है । साता तथा असाताके बन्धकों, अबन्धकोंका ४ वा भाग है । साता - असाता इन दोनों प्रकृतियों के बन्धकोंका १४ वा ४ भाग है; अबन्धक नहीं हैं । विशेष - देवोंमें आदिके चार गुणस्थान ही होते हैं, अतः अयोगकेवली में अबन्ध होनेवाले इन साता असाता युग्मका अबन्धक यहाँ नहीं कहा है । असाताका प्रमत्तसंयत तक तथा साताका सयोगी जिन पर्यन्त बन्ध होता है, इसी कारण देवोंमें इनके अबन्धक नहीं हैं । हास्यादि दो युगल तथा स्थिरादि तीन युगल में इसी प्रकार है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद के बन्धकोंके १४ है ं अबन्धकोंके १४ वा १४ है । तीनों वेदोंके बन्धकका १४ वा १४ है; बन्धक नहीं हैं ।
विशेष - जब देवों में वेदोंके अबन्धक नहीं है, तब स्रीवेद, पुरुषवेदके अबन्धकोंका तात्पर्य नपुंसक वेदके बन्धकोंसे है । नपुंसक वेदका बन्ध मिध्यात्वी जीवोंके ही होगा, अतः उनके वा पे कहा है ।
तिर्यंच- मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, ५ संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ६ संहनन, मनुष्यानुपूर्वी, आतप, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, आदेय, दो स्वर, तीर्थंकर और उच्चगोत्रका स्त्रीवेदके समान भंग है । अर्थात् बन्धकोंके तथा अबन्धकोंके १ वा १४ है | विशेष – उच्चगोत्रका पहले कथन आया है । यहाँ पुनः उसका वर्णन किया गया है । इनमें से एक पाठ अशुद्ध होना चाहिए। यह विषय चिन्तनीय है ।
इस प्रकार प्रत्येक तथा साधारणसे भी वेदोंके समान भंग जानना चाहिए। विशेष, छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरका प्रत्येक तथा साधारणसे दो आयु ( तिर्यंच मनुष्यायु) के समान भंग जानना चाहिए।
विशेष - छह संहनन, दो विहायोगति तथा दो स्वरका पहले स्त्रीवेद के समान भंग
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