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________________ पयडिबंधाहियारो १२१ सिया बध० । तिण्णं गदीणं एक्कदरंब, ण चेव अ । दोसरी दोअंगो० तिण्णिआणु० दो-विहा०-थिरादि छयुगलं गदिभंगो। पंचिंदि० तेजाक० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमि० णियमा । आहारदुगं तित्थयरं उज्जो सिया बछस्संघ० सिया ब० सिया अबौं । छण्णं संघ० एकदरं बौं । अथवा छण्णं पि अबंधगो । एवं पसत्थवि० सुभग-सुस्स० आदे० । ८०. णग्गोह-सरीरं (संठाणं) बंधतो तिरिक्ख-मणुसगदि सिया [बंधगो] सिया अब ० । दोण्णं गदीणं एकदरं बंध० । ण चेव अब । एवं गदिभंगो छस्संघ० दो आणु० दो विहा० थिरादिछयुगलं । पंचिं० तिण्णि-स० ओरालि० अंगो० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमिणं णियमा । उज्जो सिया [4] । एवं सादि० खुज्ज० वामणसं० । ८१. हुंडसंठा० बंधतो तिण्णं गदिणामाणं सिया [बंधगो] । एक्कदरं च । ण चेव अब । एवं पंचजा० दो-सरीर-तिण्णि-आणु० तसादिणवयुग तेजाक० चण्ण ०४ बन्ध करनेवाला तिथंचगति, मनुष्यगति, देवगतिका स्यात् बन्धक है। तीन गतियों में से एकका बन्धक है। अबन्धक नहीं है। विशेषार्थ-नारकियों में समचतुरस्र संस्थान नहीं पाया जाता है, इस कारण यहाँ नरकगतिका उल्लेख नहीं किया गया है। दो शरीर, दो अंगोपांग, तीन आनुपूर्वी, दो विहायोगति तथा स्थिरादि छह युगलका गतिके समान भंग जानना चाहिए । अर्थात् एकतरका वन्धक है; अबंधक नहीं है । पंचेन्द्रिय जाति, तैजस-कार्मण शरीर, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४ तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है । आहारकद्विक तीर्थकर तथा उद्योतका स्यात् बन्धक है। छह संहननका स्यात् बन्धक, स्यात् अबन्धक है । छ इमें से किसी एकका बन्धक है अथवा छहोंका अबन्धक भी है। विशेषार्थ-संहननका बन्ध तो चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त होता है और समचतुरन संस्थानका बन्ध अपूर्वकरण तक होता है। अतः यहाँ ६ संहननका अबन्धक भी कहा है। प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर तथा आदेयका भी इसी प्रकार समझना चाहिए। ८०. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानका बन्ध करनेवाला - ति यंचगति, मनुष्यगतिका स्यात् बन्धक है. स्यात अवन्धक है । दो गतियों में-से अन्यतरका बन्धक है। अवन्धक नहीं है। विशेषार्थ-देवगतिमें समचतुरस्रसंस्थान होता है और नरकगतिमें हुंडकसंस्थान . पाया जाता है । इस कारण यहाँ उक्त दोनों गतिगेका वर्णन नहीं किया गया है। छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थिरादि छह युगलमें गनिके समान पूर्वोक्त भंग है । पंचेन्द्रिय जाति, ३ शरीर, औदारिक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४ तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। उद्योतका स्यात् बन्धक है। स्वातिसंस्थान, कुलजकसंस्थान, वामनसंस्थानके बन्ध करनेवाले में इसी प्रकार जानना चाहिए । ८१. हुंडकसंथानका बन्ध करनेवाला - नरक-मनुष्य तिर्यंच गतियोंका स्यात् [ बन्धक है। ] अन्यतरका बन्धक है । अबन्धक नहीं है। विशेष-हुंडकसंस्थान देवगति में न होनेसे यहाँ उसका वर्णन नहीं किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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