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महाबंधे थिरादि-छयुग० सिया एदेसिं एक्करं वध० ण चेव अब। आहारदुगं सिया [ब ] तित्थयरं सिया [4] एवं वेगुब्विय अंगो० ।
___७७. आहारसरीरं वध'तो देवगदिपंचिदियजादि-तिण्णं सरीरं० समचदु० दो अंगोवण्ण०४ देवाणु० अगुरु० पसत्थ. तस०४ थिरादिछ. णिमि० णियमा बं । तित्थयरं सिया [२०] एवं आहारंगोव० ।
७८. तेजासरी० ब० चदुगदि० सिया ब। चदुण्णं गदीर्ण एक्कदरं ब०, ण चेव अब । पंचजादि-दोसरी० छसंठा० चदुआणु० तस-थावरादि-णवयुगलं गदिभंगो। आहारदुर्ग पर० उस्सा० आदावुजोव-तित्थय० सिया बंदो अंगो० छसंघ० दो विहाय-दोस [र]. सिया ब. सिया अब । दोणं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि एक्कदरं बं० । अथवा दोण्णं छण्णं दोण्णं दोण्णं पि अबंधगो । एवं कम्मइय० ।
७६. वण्ण०४ अगु० उप० णिमि० समचदु ० बंधतो तिरिक्ख-मणुस-देवगदि
दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थिरादि छह युगलमें-से अन्यतरका स्यात् बन्धक है, अबन्धक नहीं है।
विशेषार्थ-वैक्रियिक शरीर के साथ संहननका बन्ध नहीं होता है,कारण देव-नारकियोंके संहनन नहीं पाया जाता है।
आहारकद्विकका स्यात् बन्धक है। तीर्थकरका स्यात् बन्धक है। वैक्रियिक अंगोपांगका बन्ध करनेवालेके वैक्रियिक शरीरके बन्धकके समान जानना चाहिए।
७७. आहारक शरीरका बन्ध करनेवाला - देवगति, पंचेन्द्रियजाति तथा तैजस-कार्मण वैक्रियिक इन शरीरत्रयका नियमसे बन्धक है।
विशेषार्थ-औदारिक शरीरको बन्धव्युच्छित्ति चतुर्थगुणस्थानमें हो जाती है, इस कारण सप्तम गुणस्थानमें बँधनेवाले आहारक शरीरके साथ औदारिक शरीरका सन्निकर्ष नहीं कहा है।
समचतुरस्त्र संस्थान, आहारक-वैक्रियिक अंगोपांग, वर्ण ४, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, प्रशस्तविहायोगति, त्रस ४, स्थिरादि छह तथा निर्माणका नियमसे बन्धक है। तीर्थंकरका स्यात् बन्धक है। आहारक अंगोपांगका बन्धक करनेवालेके भी आहारक शरीरके समान भंग है।
७८. तैजस शरीरका बन्ध करनेवाला-४ गतिका स्यात् बन्धक है। चारों गतियों में से किसी एकका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । ५ जाति, दो शरीर, छह संस्थान, ४ आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि नव युगलोंका गतिके समान भंग है. अर्थात् अन्यतरका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । आहारकद्विक, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत तथा तीर्थकर प्रकृतिका स्यात् बन्धक है। दो अंगोपांग, ६ संहनन, दो विहायोगति, तथा २ स्वरका स्यात् बन्धक है अर्थात् कथंचित् बन्धक, कथंचित् अबन्धक है। इन २, ६, २, २ में-से अन्यतरका बन्ध करनेवाला है। अथवा २.६.२.२ का भी अबन्धक है। कार्मण शरीरका बन्ध करनेवालेके तैजस शरीरके समान जाना चाहिए।
७९. वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणमें इसी प्रकार है। समचतुरस्र संस्थानका
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