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________________ पयडिबंधाहियारो ११६ अगु० उप० तस चादर-पत्ते० णिमि० णियमा [ वधगो ] । छस्संघ० दोविहा० दोस० सिया बधगो । छण्णं दोण्णं दोष्णं पि एकदरं ब०, अथवा छण्णं दोष्णं दोष्णं पि अब ० | ७५. ओरालि यसरीरं बंधं० तेजाक० वण्ण०४ अगु० उप० णिमिणं णियमा बंध० । तिरिक्खमणुसगदि सिया [बं०] । दोष्णं एक्कदरं बंधगो, ण चेव अबं० । एवं भंगो पंचजादि - छठाणं दो आणु० तस्थावरादि-गव-युगलाणं । ओरालि० अंगो० परघादु० आदावुजो तित्थय० सिया बं०, सिया अबं० । छस्संघ० दोविहा० दो सरं सिया बंध०, सिया अनं० । अथवा [छण्णं] दोष्णं दोष्णं पि अबंध० । ७६. वेगुव्वियस० बंधतो पंचिंदि० तेजाक० वेगुव्विय० अंगो० वण्ण०४ अगु०४ तस०४ णिमिणं णियमा बं०, णिरयगादि- देवगदी० सिया बंध० | दोष्णं एकदरं ब०, ण' चैव अध० । एवं समचदु • हुंडसंठा० दोष्णं आणुपु० दो विहाय ० ० तीर्थंकर प्रकृतिका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । तैजस, कार्मण, वर्णं ४, अगुरुलघु, उपघात, त्रस बादर, प्रत्येक और निर्माणका नियमसे बन्धक है । ६ संहनन, दो विहायोग तथा दो स्वरका स्यात् बन्धक है । इन, ६, २, २ में से एकतरका बन्धक है, अथवा ६, २, २ का भी अबन्ध है । ७५. औदारिक शरीरका बन्ध करनेवाला - तैजस, कार्मण वर्ण ४, अगुरुलघु, उपघात, निर्माणका नियम से बन्धक है । तिर्यंचगति, मनुष्यगतिका स्यात् बन्धक है । दोनों में से अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं है । विशेषार्थ – देवगति, नरकगतिका सन्निकर्ष वैक्रियिक शरीर के साथ है औदारिकके साथ नहीं है, इससे यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया गया है। पाँच जाति, ६ संस्थान, दो आनुपूर्वी, त्रस-स्थावरादि ९ युगल में भी तिर्यंच मनुष्यगतिके समान जानना चाहिए । औदारिक अंगोपांग, परघात, उच्छ्वास, आताप, उद्योत और तीर्थंकरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । विशेषार्थ - औदारिक शरीरको धारण करनेवाले एकेन्द्रियके औदारिक अंगोपांग नहीं पाया जाता है। इस कारण औदारिक अंगोपांगका बन्ध यहाँ विकल्प रूपसे कहा गया है । छह संहनन, दो विहायोगति, दो स्वरका स्यात् बन्धक है, स्यात् अबन्धक है । अथवा [६] २, २ का भी अबन्धक है । ७६. वैक्रियिक शरीरका बन्ध करनेवाला - पंचेन्द्रिय जाति, तैजस- कार्मण शरीर, वैयिक अंगोपांग, वर्ण ४, अगुरुलघु ४, त्रस ४ और निर्माणका नियम से बन्धक है । विशेषार्थ - वैक्रियिक शरीर के साथ वैक्रियिक अंगोपांगका नियमसे बन्ध होता है । इस कारण यहाँ औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग के समान विकल्प नहीं है । नरकगति, देवगतिका स्यात् बन्धक है। दो में से एकका बन्धक है, अबन्धक नहीं है । समचतुरस्र संस्थान, तथा हुंडक संस्थानमें इसी प्रकार जानना चाहिए अर्थात् इनमें अन्यतरका बन्धक है; अबन्धक नहीं । विशेषार्थ - वैक्रियिक शरीरधारी देवोंमें समचतुरस्र संस्थान होता है और नारकियों में हुंडक संस्थान पाया जाता है । अन्य संस्थानोंका वैक्रियिक शरीर के साथ सन्निकर्ष नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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