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प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से)
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'महाबन्ध' पर प्रकाश
जिनेन्द्रदेव की निर्दोष वाणी रूप होने के कारण सम्पूर्ण आगम ग्रन्थ समान आदर तथा श्रद्धा के पात्र हैं, फिर भी जैन संसार में धवल, जयधवल, 'महाधवल' नामक शास्त्रों के प्रति उत्कट अनुराग एवं तीव्र भक्ति का भाव विद्यमान है। इस विशेष आदर का कारण यह है कि तीर्थंकर भगवान् महावीर प्रभु की दिव्यध्वनि को ग्रहण कर गणधरदेव ने ग्रन्थ-रचना की। वह मौखिक परम्परा के रूप में, विशेष ज्ञानी मुनीन्द्रों की चमत्कारिणी स्मृति के रूप में, हीयमान होती हुई, विद्यमान थी। महावीर निर्वाण के छह सौ तिरासी वर्ष व्यतीत होने पर अंगों और पूर्वो के एक देश का भी ज्ञान लुप्त होने की विकट स्थिति आ गयी। उस समय अग्रायणीयपूर्व के चयनलब्धि अधिकार के चतुर्थ प्राभृत 'कम्मपयडि' के चौबीस अनुयोग द्वारों से 'षट्खण्डागम' के चार खण्ड बनाये गये, जिन्हें वेदना, वर्गणा, खुद्दाबन्ध तथा 'महाबन्ध' कहते हैं। बन्धक अनुयोग द्वार के अन्यतम भेद बन्धविधान से जीवट्ठाण का बहभाग और तीसरा बन्धसामित्तविचय निकले। इस प्रकार 'षट्खण्डागम' का द्वादशांग वाणी से सम्बन्ध है। इसी प्रकार ज्ञानप्रवाद नामक पंचमपूर्व के दशम वस्तु अधिकार के अन्तर्गत तीसरे 'पेज्जदेसपाहुड' से कषायप्राभृत की रचना की गयी। इन ग्रन्थों का द्वादशांगवाणी से अविच्छिन्न सम्बन्ध होने के कारण द्वादशांगवाणी के समान श्रद्धा तथा भक्तिपूर्वक आदर किया जाता है। 'षट्खण्डागम' के 'महाबन्ध' को छोड़कर पाँच खण्डों पर जो वीरसेनाचार्य रचित टीका है, उसे धवल टीका कहते हैं। 'महाबन्ध' पर कोई टीका उपलब्ध नहीं है।' 'कषाय प्राभृत' में गुणधर आचार्य रचित एक सौ अस्सी गाथाएँ हैं। इनमें तिरेपन गाथाएँ और जोड़ने पर गुणधर आचार्य रचित कुल गाथाओं की संख्या दो सौ तैतीस हो जाती है। जयधवला टीका में कहा है-“कसायपाहुडे सोलसपदसहस्साणि (१६०००)। एदस्स अवसंहारगाहाओ गुणहर-मुह-कमल- विणिग्गियायो तेत्तीसाहिय-विसदमेत्तीओ (२३३)” (भाग १, पृ. ६६)। यतिवृषभ आचार्य ने छह हजार श्लोकप्रमाण चूर्णि सूत्र बनाये। इसकी बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण टीका वीरसेनाचार्य तथा उनके शिष्य भगवज्जिनसेन स्वामी ने बनायी, उसका नाम जयधवला टीका है।
सूत्र-रचना- 'षट्खण्डागम' में जीवट्ठाण के प्रारम्भिक सत्प्ररूपणा अधिकार के केवल एक सौ सतहत्तर सूत्रों की रचना पुष्पदन्त आचार्य ने की है, शेष समस्त रचना भूतबलि स्वामीकृत है। जीवट्ठाण, खुद्दाबन्ध, बन्धसामित्त, वेदना और वर्गणा-इन सूत्ररूप पाँच खण्डों की श्लोक संख्या छह हजार प्रमाण है। छठे खण्ड 'महाबन्ध' में चालीस हजार श्लोक प्रमाण सूत्र हैं। साधाराणतया सम्पूर्ण धवला, जयधवला टीका को द्वादशांग से साक्षात् सम्बन्धित समझा जाता है।
महाबन्ध का प्रमाण-द्वादशांग वाणी से सम्बन्ध रखनेवाले प्राचीन साहित्य की दृष्टि से गुणधर
१. वप्पदेव ने आठ हजार पाँच श्लोक प्रमाण महाबन्ध की टीका रची थी।
व्यलिखत् प्राकृतभाषारूपां सम्यक्पुरातनव्याख्याम्।
अष्टसहस्रग्रन्थां व्याख्यां पञ्चाधिकां महाबन्धे ॥१७६॥-इन्द्र. श्रुता.। २. गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा विहत्तम्मि।
वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ॥-जयध. १,१५१ ।
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