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प्राक्कथन
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निरीक्षण किया, तब नवीन रूप से टीका निर्माण करना ही उचित ऊँचा। 'महाबन्ध' की टीका को मुख्य कार्य समझ हम उसमें संलग्न हो गये। लगभग तीन वर्ष में यह कार्य बन पाया। बना या नहीं, यह हम नहीं कह सकते। हमारा भाव यह है कि इसमें पूर्वोक्त समय लगा। इस अनुवाद में विशेषार्थ, टिप्पणी, शुद्ध पाठ-योजना आदि भी कार्य हुए। इस अपेक्षा से यह टीका पूर्णतया नवीन समझना चाहिए।
सन् १६४५ के ग्रीष्मावकाश में न्यायालंकार, सिद्धान्त महोदधि, गुरुवर पं. वंशीधरजी शास्त्री (महरौनीवालों) ने सिवनी पधारकर अनुवाद को ध्यानपूर्वक देखा। उनके संशोधन के उपलक्ष में हम हृदय से कृतज्ञ हैं। यह उनकी ही कृपा है जो यह महान् कार्य हम-जैसे व्यक्ति से सम्पन्न हो गया।
पं. हीरालालजी शास्त्री, साढूमलने अनेक बहुमूल्य परामर्श तथा सुझाव प्रदान किये थे। पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री ने सिवनी पधारकर अनेक महत्त्वास्पद बातें सुझायी थीं। इसके लिए हम दोनों विद्वानों के अनुगृहीत हैं। अन्य सहायकों के भी हम आभारी हैं।
हमें स्वप्न में इस बात का भान न था कि 'महाबन्ध' की प्रति मूडबिद्री से प्राप्त करने का परम सौभाग्य हमें मिलेगा और उसकी टीका करने का भी अमूल्य अवसर आयेगा। जैन धर्म के प्रसाद से और चारित्र चक्रवर्ती प्रातःस्मरणीय पूज्य आचार्य १०८ श्री शान्तिसागर महाराज के पवित्र आशीर्वाद से यह मंगलमय कार्य सम्पन्न हुआ। प्रमाद अथवा अज्ञानवश टीका में जो भूलें हुई हों, उन्हें विशेषज्ञ विद्वान् क्षमा करेंगे और संशोधनार्थ हमें सूचित करने की कृपा करेंगे, ऐसी आशा है। ऐसे महान् कार्य में भूलें होना असम्भव नहीं हैं। 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे।' पौष कृ. ११, वीर संवत् २४७३
-सुमेरुचन्द्र दिवाकर १८ दिसम्बर, १६४६; सिवनी (म.प्र.)
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