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महाबन्ध
सब लोग आवश्यक कार्यवश अपने-अपने घर चले गये। अतः हम अकेले मूडबिद्री पहुँचे। दो-तीन दिन प्रयत्न करने पर भी प्रतिलिपि का कार्य प्रारम्भ न हो सका। आगे कब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, यह भी पता नहीं चलता था। इससे चित्त में विविध संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते थे। चित्त अपार चिन्ता-निमग्न था। जिनेन्द्र भक्ति का एकमात्र अवलम्बन था।
चिरस्मरणीय दिवस
परम सौभाग्य से तीन दिन की प्रबल प्रतीक्षा के पश्चात् व्यवस्थापक बन्धु श्री धर्मपालजी श्रेष्ठि की विशेष कृपा हुई। उन्होंने भण्डार खोलकर 'महाबन्ध' शास्त्र की ताड़पत्रीय प्रति हमारे समक्ष विराजमान कर दी। जिनेन्द्रदेव तथा जिनवाणी की पूजा के अनन्तर हमने स्वयं देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि प्रारम्भ करने का परम सौभाग्य प्राप्त किया। वह ३० दिसम्बर, १६४१ का दिन जैन साहित्य के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा।
कृतज्ञता
अनन्तर प्रतिलिपि का कार्य पं. लोकनाथजी शास्त्री के तत्त्वावधान में सम्पन्न होता रहा। ३० दिसम्बर सन् १६४२ तक कार्य पूर्ण हो गया। पहले मूडबिद्री के भण्डार के लिए यही कापी ४ वर्ष में तैयार की गयी थी। यह कार्य शीघ्र सम्पन्न करने का श्रेय उक्त शास्त्रीजी के सहयोगी विद्वान् पं. नागराजजी तथा देवकुमारजी को भी है। भट्टारक महाराज तथा व्यवस्थापकों की भी विशेष कृपा रही जो उन्होंने इस कार्य में कोई भी बाधा नहीं उत्पन्न होने दी। इस सम्बन्ध में श्री मंजैय्या हेगड़े के हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं कि उन्होंने सर्वदा इस पुण्य कार्य में सर्व प्रकार का सहयोग प्रदान किया। कुछ विद्वानों ने उत्तर भारत से श्री हेगड़ेजी को प्रतिलिपि न देने का अप्रार्थित बहुमूल्य परामर्श दिया, किन्तु विद्वान् हेगड़े महाशय के उत्तर से उन लोगों को चुप होना पड़ा। जब हम आपत्तियों से- आकुलित होकर हेगड़ेजी को लिखते थे, तो उनके उत्तर से निराशा दूर हो जाती थी। उन्होंने हमें लिखा था-"आप भय न करें, ग्रन्थ-प्रकाशन के विषय में कोई भी बाधा न आएगी। प्रतिलिपि का कार्य आपकी इच्छानुसार होता रहे, इस पर मैं विशेष ध्यान रसूंगा।" उन्होंने अपने वचन का पूर्णतया रक्षण किया। यथार्थ में वे महापुरुष थे। कुछ भी भेंट लिये बिना प्रतिलिपि की अनुज्ञा प्रदान करने की उदारता तथा कृपा के उपलक्ष में हम सिद्धान्त मन्दिर के ट्रस्टियों तथा मूडबिद्री के पंचों को हार्दिक धन्यवाद देते हैं। भट्टारक महाराज के भी हम अत्यधिक कृतज्ञ हैं। मूडबिद्री के महानुभवों के हार्दिक प्रेम, कृपा तथा उदार भाव की स्मृति चिरकाल पर्यन्त अन्तःकरण में अंकित रहेगी।
मूडबिद्री में प्रतिलिपि कराने में जो द्रव्य-व्यय हुआ, वह सेठ गुलाबचन्दजी हीराचन्दजी (सोलापुर) के पास से प्राप्त हुआ था। इसके लिए उन्हें धन्यवाद है। ब्र. श्री जीवराजजी ने इस श्रुत-रक्षा या सेवा के कार्य में जो सत्परामर्श तथा सर्व प्रकार का सहयोग दिया, उसके लिए हम अत्यन्त अनुगृहीत. हैं।
दानवीर साहू श्री शान्तिप्रसादजी जैन की वदान्यता से स्थापित भारतीय ज्ञानपीठ काशी ने इस टीका के प्रकाशन की उदारता की, इसके लिए हम साहू शान्तिप्रसादजी के अत्यन्त अनुगृहीत हैं। पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य ने प्रकाशन निमित्त जो श्रम किया, उसके लिए उन्हें विशेष धन्यवाद है।
इस शास्त्र का तेजी के साथ शब्दानुवाद प्रथम बार वैद्यराज पं. कुन्दनलालजी परवार, न्यायतीर्थ तथा पं. परमानन्दजी साहित्याचार्य (सौंरई निवासी) के सहयोग से लगभग सवा माह में पूर्ण हुआ था। इसके पश्चात् पं. कुन्दनलालजी के अस्वस्थ हो जाने के कारण उनका बहुमूल्य सहयोग न मिल सका। पं. परमानन्दजी का लगभग दो-एक सप्ताह और सहयोग बड़ी कठिनता से मिला, और आगे वे सहयोग न दे पाये। उन विद्वानों के अमूल्य सहयोग के लिए हम अत्यन्त आभारी हैं।
आद्य अनुवाद की प्रति देखकर अनेक अनुभवी विद्वानों ने सलाह दी कि सम्पूर्ण टीका पुनः लिखी जानी चाहिए। यह ग्रन्थ महान् है। हमने भी जब विशेष शास्त्रों का अभ्यास किया और रचना का सूक्ष्मतया
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