SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राक्कथन स्वीकृति इस पर विवेकमूर्ति परम सज्जन श्री मंजैय्या हेगड़े ने द्रवित होकर कहा “You have given us more than we wanted - जो कुछ हम चाहते थे, उससे अधिक मूल्य आपने दे दिया। श्री हेगड़ेजी की अनुकूलता होने पर आदरणीय भट्टारक महाराज, श्री बल्लाल आदि सबने स्वीकृति प्रदान कर दी । हमारे पूज्य बड़े भाई सिंघई अमृतलालजी ने हमसे कहा - "यह महान् कार्य है। परिणामों में परिवर्तन का पदार्पण होते विलम्ब नहीं लगता, अतः लिखित स्वीकृति आवश्यक है । वह सर्व आशंकाओं को दूर कर देगी। हमने सब समाज से विनय की - “आज आप लोगों ने 'महाधवल' जी की बिना मूल्य प्रतिलिपि प्रदान करने की पवित्र स्वीकृति दी है। समाचार पत्रों में प्रामाणिकता पूर्वक समाचार प्रकाशित करने के लिए आप लोगों की लिखित स्वीकृति महत्त्वपूर्ण होगी, और लोगों को तनिक भी सन्देह नहीं रहेगा।” सबका हृदय पूर्णतया पवित्र था । स्वीकृति अन्तःकरण से दी गयी थी, अतः प्रमुख पुरुषों ने सहर्ष शीघ्र हस्ताक्षर करके स्वीकृतिपत्रक हमें दिया । उसे पा हमने अपने को धन्य तथा कृतार्थ समझा। इस कार्य को सम्पन्न करने में हमें अपने पूज्य पिताजी (सिंघई कुँवरसेनजी) से विशिष्ट पथ-प्रदर्शन प्राप्त हुआ था, कारण वे महान् शास्त्रज्ञ, लोक-व्यवहार- प्रवीण एवं अपूर्व कार्यकुशलता सम्पन्न थे । उनका प्रभाव भी कार्य सम्पन्न करने में बड़ा साधन बना । २६ मूडबिद्री के पत्रों की महान् उदारता को घोषित करनेवाला समाचार जब जैन समाज ने सुना, तब चारों ओर सबने महान् हर्ष मनाया और मूडबिद्री की समाज के कार्य की प्रशंसा की। किन्तु दुर्भाग्य से एक समाचार पत्र में कुछ ऐसे समाचार निकल गये, जिससे पुरातन विरोधाग्नि पुनः प्रदीप्त हो उठी। इससे दक्षिण के एक प्रमुख पुरुष ने हमें लिखा- “अब आप प्रतिलिपि ले लेना, देखें, कौन देता है?” इससे हमारी आत्मा काँप उठी। यह ज्ञात कर बड़ा दुःख हुआ, कि व्यक्तिगत विशेष मान की रक्षार्थ हमारे विज्ञबन्धु ऐसे महत्त्वपूर्ण विषय को पुनः विरोध और विवाद की भँवर में फँसा रहे हैं। इसके अनन्तर ज्ञात हुआ कि न्यायदेवता के आह्वान निमित्त कानूनी कार्रवाई भी प्रारम्भ होने लगी। उस समय श्रुतभक्त ब्र. श्री जीवराज गौतमचन्दजी दोशी और मुनि समन्तभद्रजी के (जो उस समय क्षुल्लक थे) प्रभाव तथा सत्प्रयत्न से विरोध शान्त किया गया। यह चर्चा हमने इससे की कि लोग यह देख लें, कि बना-बनाया धर्म का कार्य किस प्रकार अकारण अवांछनीय संकटों में घिर जाता है । सोमदेव सूरि की उक्ति बड़ी अनुभवपूर्ण है। वे 'नीतिवाक्यामृत' में लिखते हैं-- ' धर्मानुष्ठाने भवति, अप्रार्थितमपि प्रातिलोम्यं लोकस्य' (१,३५) 'धर्मकार्य में लोग बिना प्रार्थना किये गये स्वयमेव प्रतिकूलता धारण करते हैं। ऐसी प्रवृत्ति पापानुष्ठान के विषय में नहीं होती । और भी विपत्तियों का वर्णन करके हम लेख को बढ़ाना उचित नहीं समझते। संक्षेप में इतना ही कहना है कि बड़े-बड़े विचित्र विघ्न आये, किन्तु श्रुतदेवता के प्रसाद से वे शरदऋतु के मेघों के सदृश अल्पस्थायी रहे । Jain Education International आबाधाकाल वर्ष बीत गया, फिर भी प्रतिलिपि का कार्य प्रारम्भ नहीं हो रहा था। एक बार श्री मंजैय्या हेगड़े ने अपने धर्मस्थल के सर्वधर्म सम्मेलन में मुझे बुलाया । वहाँ पहुँचने से प्रतिलिपि का कार्य शीघ्र प्रारम्भ करने में विघ्न नहीं आता, किन्तु कारण विशेष से पहुँचना न हो सका। कुछ समय के अनन्तर दिसम्बर सन् १६४१ में गोम्मटेश्वर महामस्तकाभिषेक फण्ड सम्बन्धी कमेटी की बैठक में सम्मिलित होने को हमें बैंगलोर जाना पड़ा। उत्तर भारत से केवल श्रीमन्त सर सेठ हुकमचन्दजी, सर सेठ भागचन्दजी सोनी पहुँचे थे। मीटिंग के पश्चात् हम ग्रन्थप्राप्ति की आशा से श्री मंजैय्या हेगड़े, श्री रघुचन्द बल्लाल, श्री जिनराज हेगड़े एडवोकेट, एम. एल. ए., श्री शान्तिराज जी शास्त्री आस्थान महाविद्वान् (मैसूर) के साथ मूडबिद्री के लिए रवाना हुए। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy