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२८.
महाबन्ध
हमने विनोदपूर्वक कहा- “उस दिन आपने कहा था कि मूडबिद्री में हम आपका व्याख्यान कराना चाहते हैं। आप अबतक नहीं आये। हमें अपने देश वापस जल्दी जाना है, इससे आपको लेने आये हैं कि आज सन्ध्या को हमारा व्याख्यान सुन लें।" वे मुस्करा पड़े। अनन्तर हमने सब कथा उनको सुनाकर शीघ्र चलने की प्रेरणा की। वे सहर्ष तैयार हो गये। उनकी मोटर में उनके साथ हम मूडबिद्री के लिए रवाना हुए। मार्ग में हमने सब विषय उनके समक्ष स्पष्ट किया, तो उन्हें अपनी स्वीकृति प्रदान करने में विलम्ब न लगा । उन्होंने अपार प्रेम दिखाया।
मूडबिद्री वापस आने पर हमें श्री हेगड़ेजी और सर सेठ हुकमचन्दजी मिल गये। रात्रि को पूर्वोक्त त्रिलोकचूड़ामणि चैत्यालय चन्द्रनाथवसदि के प्रांगण में सर सेठ हुकमचन्दजी की अध्यक्षता में एक सभा बुलायी गयी। अनेक प्रतिष्ठित महानुभाव पधारे थे । मूडबिद्री मठ के अधिपति आदरणीय भट्टारकजी चारुकीर्ति पण्डिताचार्य स्वामी भी उस सभा में आये थे। हमने 'महाबन्ध' - सम्बन्धी चर्चा प्रारम्भ की, उस समय ज्ञात हुआ कि मूडबिद्री सिद्धान्त शास्त्रमन्दिर के ट्रस्टी वर्ग तथा पंच महानुभावों के चित्त में इस बात की गहरी ठेस लगी कि एक जैन पत्र में यह वृत्तान्त प्रकाशित किया गया था कि 'महाबन्ध' शास्त्र न देने में मूडबिद्रीवालों का व्यक्तिगत स्वार्थ कारण है । वे शास्त्र - विक्रय (Traffic in literature) करके लाभ उठाना चाहते हैं । इस सम्बन्ध में भ्रमनिवारण किया गया कि जिन लोगों के पूर्वजों ने त्रिलोकचूड़ामणि चैत्यालय- जैसा विशाल जिन मन्दिर बनवाया, धर्मसेवा के उज्ज्वल कार्य निःस्वार्थ भाव से सम्पन्न किये, उनके विषय में दूषित कल्पना करना तथा मिथ्या प्रचार करना ठीक नहीं है ।
मूडी में भाषण
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इसके पश्चात् हमने अपने भाषण में मूडबिद्री के प्राचीन पुरुषों एवं वर्तमान धर्मपरायण समाज के प्रति आन्तरिक अनुराग तथा आदर का भाव व्यक्त करते हुए कहा- “जब लोग धार्मिक अत्याचार करते थे, उस संकट के युग में जिन्होंने शास्त्रों को छिपाकर श्रुत की रक्षा की, उनके प्रति हम हार्दिक श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं । किन्तु जगत् में बड़ा परिवर्तन हो गया। लोग ज्ञानामृत के पिपासु हैं। भूतबलिस्वामी ने जगत् के कल्याण निमित्त महान् कष्ट उठाकर इतना बड़ा और अत्यन्त गम्भीर शास्त्र बनाया। उसके प्रकाश में आने पर जगत् में ग्रन्थकर्ता की कीर्ति व्याप्त होगी तथा मुमुक्षुगण अपना हित सम्पन्न करेंगे। पूज्य पुरुषों की निर्मल कीर्ति का संरक्षण करना हमारा कर्तव्य है । सोमदेवसूरि ने बताया है- 'यशोवधः प्राणिवधात् गरीयान्' प्राणिघात की अपेक्षा यश का घात करना गुरुतर दोष है, कारण यशोवध द्वारा कल्पान्तस्थायी यशः शरीर का नाश होता है । भूतबलिस्वामी के साहित्य को छिपाने से उनके प्राणघात से भी बढ़कर दोष प्राप्त होता है भूतबलिस्वामी ने विश्वकल्याण के लिए यह रचना की थी। इस अमूल्य कृति का क्या उन्होंने कुछ मूल्य रखा था? हमारी भक्ति का अर्थ है - श्रुत का संरक्षण तथा सुप्रचार । उसे बन्धन में रखकर दीमक आदि द्वारा नष्ट होते देखना कभी भी श्रुतभक्ति नहीं कही जा सकती।” इतने में किसी ने कहा- “हमारे यहाँ लोग गरीब हैं, उनकी सहायतार्थ द्रव्य आवश्यक है"। इसे सुनते ही हमने कहा- "इन वाक्यों को सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ कि हमारे दक्षिण के कोई-कोई बन्धु अपने को गरीब समझ रहे हैं। जिनके पास भगवान् गोम्मटेश्वर जैसी अनुपम प्रभावशाली मूर्ति है, क्या वे गरीब हैं? जिनके पास बहुमूल्य तथा अपूर्व जिनबिम्ब विद्यमान हैं, वे क्या गरीब हैं? जिनके पास धवल, 'महाधवल' सदृश श्रेष्ठ ग्रन्थराज हैं, वे भी क्या गरीब हैं? यदि इसे ही गरीबी कहा जाता है, तो हम ऐसी गरीबी का अभिनन्दन करते हैं, अभिवन्दन करते हैं । लीजिए भौतिक संसार की समृद्धि को और हमें यह गरीबी दे दीजिए।” हमने यह भी कहा- “ बताइए, इन ग्रन्थों का आपने क्या मूल्य रखा है? रुपयों का मूल्य तो जाने दीजिए, हम तो जीवन-निधि तक अर्पण कर इस आगम-निधि को लेने आये हैं। बताइए, इससे भी अधिक और मूल्य आपको क्या चाहिए? हम जानते हैं, 'महाबन्ध' सदृश श्रुत की रक्षा निमित्त हमारे सदृश सैकड़ों व्यक्तियों का जीवन नगण्य है। लोग राष्ट्रप्रेम के कारण जीवन उत्सर्ग करते हैं, तो सकल सन्तापहारी श्रुतरक्षार्थ जीवन अर्पण करने में क्या भीति है? कहिए, ग्रन्थ के लिए आप और क्या मूल्य चाहते हैं?"
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