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________________ प्राक्कथन व्यवस्थापकों से मधुर सम्बन्ध - निर्माण महाभिषेक बड़े वैभव और अपूर्व आनन्दपूर्वक सम्पन्न हुआ । अभिषेक के कलशों की बोली से प्राप्त रकम मैसूर स्टेट के अधिकारियों के पास जमा हो गयी । किन्तु बहुत-से धर्मबन्धु अपने धन को अपने ही अधिकार में रखने की बात सोचते थे। अर्थ-व्यवस्था निमित्त रावराजा श्रीमन्त सर सेठ हुकमचन्दजी के स्थान २७ एक बैठक हुई। उसमें कर्णाटक प्रान्त के महान् प्रभावशाली व्यक्ति श्री डी. मंजैय्या हेगड़े, बी. ए., धर्मस्थल तथा उस प्रान्त के विशेष श्रीमन्त राजवंशीय श्रीरघुचन्द्रबल्लाल, मेंगलोर भी शामिल हुए थे । वह मीटिंग उक्त दोनों महानुभावों के साथ हमारे स्निग्ध सम्बन्धों के स्थापन तथा संवर्धन में कारण बनी। यहाँ यह लिख देना उचित होगा कि 'महाबन्ध' के व्यवस्थापकों में उन लोगों का प्रमुख स्थान था, इसलिए उनके साथ का परिचय तथा मैत्री सम्बन्ध भावी सफलता के मार्ग के लिए अनुकूलता को सूचित करते थे । महाभिषेक महोत्सव पूर्ण होने के पश्चात् मूडबिद्री, कार्कल आदि की वन्दना निमित्त हम पिताजी के साथ मेंगलोर पहुँचे। वहाँ माननीय श्रीबल्लाल महाशय से अकस्मात् भेंट हो गयी । प्रसंगवश हमने उनसे कहा- “पहले तो आपके बल्लाल वंश ने दक्षिण भारत में राज्य किया था। आपको भी उस वंश की प्रतिष्ठा के अनुरूप अपूर्व कार्य करना चाहिए। देखिए, आपके यहाँ मूडबिद्री के शास्त्र भण्डार में संसार की अपूर्व विभूति 'महाबन्ध' शास्त्र है। इसका उद्धार कार्य करने से विश्व आपका आभार मानेगा।” इसके अनन्तर कुछ और भी धार्मिक बातें हुईं। शायद वे उन्हें पसन्द आयीं। उन्होंने हमसे कहा- “हम मूडबिद्री में आपका भाषण कराना चाहते हैं, क्या आप बोलेंगे?" हमने विनोदपूर्वक कहा- “जब भी आप भाषण के लिए कहेंगे, तब ही हम बोलने को तैयार हैं, किन्तु इसके बदले में आपको 'महाबन्ध' शास्त्र देना होगा।" वे हँसने लगे । सक्रिय उद्योग हम मूडबिद्री पहुँचे। वहाँ जैन नरेशों के औदार्य तथा भक्तिवश निर्माण कराये गये त्रिलोकचूड़ामणि चैत्यालय (चन्द्रनाथवसदि) की भव्यता तथा विशालता को देख बड़ा आनन्द आया। उस मन्दिर में अफ्रीका के कारीगरों ने आकर प्राचीन समय में शिल्प का कार्य किया था। हमें बताया गया कि पहले जैनियों की वहाँ बहुत समृद्धिपूर्ण स्थिति थी। बड़े-बड़े जहाजों के वे अधिपति थे । उनसे वे विदेश जाकर रत्नों का व्यापार करते थे और श्रेष्ठ वस्तु जिनशासन के उपयोग में लाते थे । इस प्रकार वहाँ की अमूल्य अपूर्व मूर्तियाँ बनायी गयी थीं। पुरातन जैन वैभव की चर्चा सुन-सुनकर हृदय हर्षित हो रहा था । उस समय वयोवृद्ध परमधार्मिक श्री नागराज श्रेष्ठी से भेंट हुई। उन्होंने बड़ा स्नेह व्यक्त किया। हमने विनीत भाव से कहा- “ बड़ी दया हो, यदि इस बार के महाभिषेक की स्मृति में आप लोग 'महाबन्ध' की प्रतिलिपि करने की अनुज्ञा दे दें। आपके पूर्वजों का ही पुण्य था जो रत्नराशि से भी अधिक मूल्यवान् इस ग्रन्थरत्न की अब तक रक्षा हुई।” हमारी बात सुनकर उन्होंने कहा – “प्रयत्न करो, आपको ग्रन्थ मिल जाएगा।” हमने कहा, “आपके आशीर्वाद और कृपा द्वारा ही यह कठिन कार्य सम्भव हो सकता है।” उन्होंने हमें उत्साहित करते हुए कहा - " अगर आप मंजैय्या हेगड़े तथा रघुचन्द्र बल्लाल को यहाँ ला सकें, तो सरलता से काम बन जाएगा। उन लोगों का यहाँ की समाज पर विशेष प्रभाव है। हेगड़ेजी का प्रभाव तो असाधारण है।” अतः दूसरे दिन सबेरे हम अपने छोटे भाई चिरंजीव (प्रोफेसर ) सुशीलकुमार दिवाकर (बी. काम., एम. ए., एल एल. बी.) को तथा ब्र. फतेहचन्दजी परवारभूषण नागपुरवालों को साथ लेकर धर्मस्थल गये तथा श्री मंजैय्या हेगड़े से मूडबिद्री चलने का अनुरोध किया। बड़े आग्रह करने पर उन्होंने हमारा निवेदन स्वीकार किया । धर्मस्थल में धर्ममूर्ति हेगड़ेजी के वैभव, प्रभाव तथा पुण्य को देखकर आनन्द हुआ । Jain Education International धर्मस्थल से वापस होते समय हम वेणूर की बाहुबलि स्वामी की विशाल तथा उच्च कलापूर्ण मूर्ति के दर्शनार्थ ठहरे। वहाँ सौभाग्य से दानवीर रावराजा श्रीमन्त सर सेठ हुकमचन्दजी से भेंट हो गयी। हमने उन्हें सिद्धान्तशास्त्र सम्बन्धी चर्चा सुनाकर सन्ध्या के समय मूडबिद्री पहुँचने का अनुरोध किया और अपने स्थान पर वापस आये। पश्चात् हम श्रीमन्त बल्लाल महोदय से मिलने मैंगलोर पहुँचे। उन्होंने पूछा- “कैसे आये For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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