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महाबन्ध
जटिल समस्या
कुछ समय के बाद पुरुषार्थ धर्मवीर सेठ रावजी भाई का स्वर्गवास हो गया। इससे आत्मा बहुत व्यथित हुई। हमने सोचा-भगवन् ! अब यह 'महाबन्ध' की प्राप्ति की अत्यन्त कठिन तथा जटिल समस्या कब तक और कैसे सुलझती है?
सुदैव से ग्रन्थराज की प्रतिलिपि प्राप्ति के मार्ग की बाधाओं का अभाव होना तथा अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण आरम्भ हुआ। नवीन परिस्थिति
सन् १६३६ की बात है। श्रमणवेलगोला में १००८ भगवान् बाहुबलिस्वामी की भुवनमोहिनी, वेश्वातिशायिनी दिव्य मूर्ति के महाभिषेक की पुण्यवेला आयी। किन्तु मैसूर प्रान्त में स्व. सेठ एम. एल. वर्धमानैय्या सदृश कार्यकुशल, प्रभावशाली, उदार तथा समर्थ नेता के अभाव होने से आदरणीय भट्टारक श्री चारुकीर्ति पण्डिताचाय में जो ब्र. नेमिसागरजी वर्णी के रूप में विख्यात थे) महाराज श्रमणवेलगोला तथा उनके सहयोगी महानुभाव, अन्तरायों की अपरिमित राशि देख सचिन्त थे, और गोम्मटेश्वर स्वामी से पुनः-पुनः प्रार्थना करते थे-'देवाधिदेव, आपके चरणों के प्रसाद से यह मंगलकार्य सम्यक् प्रकार. सम्पन्न हो, कोई भी विघ्न नहीं आने पाए।'
उस समय दिगम्बर जैन महासभा के मुखपत्र जैन गजट के सम्पादक तथा अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन राजनीतिक स्वत्वरक्षक समिति के मन्त्री के रूप में हमने यथाशक्ति महाभिषेक की सफलता निमित्त पत्र-द्वारा आन्दोलन किया, विघ्नकारियों का तीव्र प्रतिवाद किया तथा मैसूर राज्य के दीवान सा. सर मिर्जा स्माइल आदि उच्च अधिकारियों से पत्र व्यवहार द्वारा अनुरोध किया। उस समय हमारे लेखों आदि का कनड़ी अनुवाद मैसूर राज्य के आस्थान महाविद्वान् पं. शान्तिराजजी शास्त्री के कनड़ी पत्र 'विवेकाभ्युदय' में छपता था। इस कारण कर्णाटक प्रान्तीय जैन बन्धुओं से हमारा आन्तरिक स्नेह-सम्बन्ध सहज ही स्थापित हो गया। यही स्नेह आगे सफलता में प्रमुख हेतु बना।
महाभिषेक-महोत्सव का पुण्य अवसर आया। लाखों वन्दक विश्ववन्दनीय विभूति की वन्दना द्वारा जीवन सफल करने के लिए भारतवर्ष के कोने-कोने से आये। उस महाभिषेक के अपूर्व तथा दिव्य समारोह को कौन भूल सकता है? बड़े सौभाग्य से हम भी अपने पूज्य पिता श्री सिंघई कुँवरसेनजी आदि के साथ वहाँ पहुँचे। जब भट्टारकजी से मिलने गये, तब उनके समीप उस प्रान्त के प्रमुख जैन बन्धु बैठे हुए थे। वहाँ स्वामीजी ने (भट्टारक महाराज का बड़ा प्रभाव तथा सम्मान है। मैसूर महाराज भी उनकी बड़ी प्रति करते हैं, उनको वहाँ स्वामीजी कहते हैं। हमारे प्रति प्रगाढ़ प्रेम प्रकट किया। उन्होंने बड़े गौरवपूर्ण शब्दों द्वारा लोगों को हमारा परिचय देते हुए इस महाभिषेक को सम्पन्न कराने का विशेष श्रेय हमें प्रदान किया
हम चकित हो गये। महाराज से कहा-"हमने क्या कार्य किया, जिसका आप इतना उल्लेख कर रहे हैं। हमारा इतना पुण्य नहीं है। गोम्मटेश्वर स्वामी के चरणों के प्रति भक्तिवश कुछ सेवा बन गयी, उसे अधिक मूल्यवान् बताना आपकी ही महत्ता है। स्वामीजी ने अपनी कर्णाटकी ध्वनि (tone) में कहा है, "क्या आपकी स्तुति करके हमें कुछ प्राप्त करना है, जो हम यहाँ अतिशयोक्तिपूर्ण बात कहते ?" हमें चुप हो जाना पड़ा।
वहाँ से चलते समय स्वामीजी ने हृदय से मंगल आशीर्वाद दिया और 'फलेन फलमालभेत'-इन फलों के द्वारा तुम्हें महाफल मिले-कहते हुए कुछ पक्व फल हमें दिये। वह पर्व का दिन था। हमारे हाथों में फलों को देखकर एक शास्त्रीजी ने व्यंग्य में कहा-"क्या अँगरेजी की शिक्षा ने आपकी प्रवृत्ति बदल तो नहीं दी?" हमने भट्टारकजी से फल-प्राप्ति की बात सुनायी, तो वे बोल उठे-“आप खूब मिले, और लोग तो भट्टारकजी को फल चढ़ाते हैं, भेंट देते हैं और भट्टारकजी आपको देते हैं।" हँसते हए हम अपने स्थान पर आ गये।
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