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________________ प्राक्कथन २५ होगी, इस कारण अब उन्होंने 'महाधवल'– 'महाबन्ध' की प्रतिलिपि के विषय में पूर्ण सतर्कता से कार्य लिया। 'दूधका जला छाँछ को भी फूंककर पीता है, इस कहावत के अनुसार उन्होंने 'महाबन्ध' को शास्त्र भण में इतना अधिक सुरक्षित कर दिया कि भेट देनेवाले व्यक्ति भी 'महाबन्ध' के स्थान में अनेक बार अन्य शास्त्र का दर्शन कर अपने मन को काल्पनिक सन्तोष प्रदान करते थे कि हमने भी 'महाधवल जी आदि की वन्दना कर ली। अब जब 'महाबन्ध' का यथार्थ दर्शन कठिन हो गया, तब प्रतिलिपि की उपलब्धि की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। प्रतिलिपि में समय - सेठ हीराचन्दजी के सत्प्रयत्न से 'महाबन्ध' की देवनागरी प्रतिलिपि का कार्य पं. लोकनाथजी शास्त्री । के ग्रन्थागार के लिए करते जाते थे। यह कार्य सन १६१८ से १९२२ पर्यन्त चला। इसी बीच में पं. नेमिराजजी ने इसकी कनड़ी प्रतिलिपि भी बना ली। तीनों सिद्धान्त ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराने में लगभग बीस हजार रुपये खर्च हुए और छब्बीस वर्ष का लम्बा समय लगा। तीनों ग्रन्थों की देवनागरी तथा कनड़ी प्रतिलिपि के हो जाने से अब सुरक्षण सम्बन्धी चिन्ता दूर हो गयी, केवल एक ही जटिल समस्या श्रुतभक्त समाज के समक्ष सुलझाने को थी कि 'महाबन्ध' को बन्धनमुक्त करके किस प्रकार उस ज्ञाननिधि के द्वारा जगत् का कल्याण किया जाए? इस कार्य में महान् प्रयत्नशील सेठ माणिकचन्दजी (बम्बई) तथा सेठ हीराचन्दजी (सोलापूर) सफल मनोरथ होने के पूर्व ही स्वर्गीय निधि बन गये। जैन महासभा का उद्योग . दिगम्बर जैन महासभा ने इस विषय में एक प्रस्ताव पास करके प्रयत्न किया, किन्तु वह अरण्यरोदन रहा। महासभा का एक वार्षिक उत्सव सन् १९३६ में इन्दौर में रावराजा दानवीर श्रीमन्त सर सेठ हुकमचन्दजी की जुबली के अवसर पर हुआ। वहाँ 'महाबन्ध' के विषय में हमने प्रस्ताव पेश करने का प्रयत्न किया, तो महासभा के अनेक अनुभवी व्यक्तियों ने यह कहकर विरोध किया कि यह अनावश्यक है, क्योंकि वह ग्रन्थ मूडबिद्री की समाज देने को बिलकुल तैयार नहीं है। विशेष श्रम करने पर सौभाग्य से पुनः प्रस्ताव पास हआ और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा निमित्त एक उपसमिति का निर्माण हआ। उसके संयोजक जिनवाणी भूषण धर्मवीर सेठ रावजी सखारामजी दोशी बनाये गये। लेखक भी उसका अन्यतम सदस्य था। सेठ रावजी भाई ने दो बार मूडबिद्री का लम्बा प्रवास करके एवं हजारों रुपया भेंट करने का अभिवचन देकर भी सफलता निमित्त प्रयास किया, किन्तु दुर्भाग्यवश मनोरथ पूर्ण न हो पाया। कुछ ऐसी बातें उत्पन्न हो गयीं, जिन्होंने परस्पर के मधुर सम्बन्धों में भी शैथिल्य उत्पन्न कर दिया। 'महाबन्ध' उपसमिति के समक्ष यहाँ तक विचार आने लगा कि जिनवाणी माता की रक्षा निमित्त व्यक्तिगत अनुनय-विनय का मार्ग छोड़कर अब न्यायालय का आश्रय लेना चाहिए। किन्हीं व्यक्तियों के विचित्र ग्रन्थ-मोह की पूर्ति निमित्त विश्व की अनुपम निधि को अब अधिक समय तक बन्धन में नहीं रखा जा सकता। न्यायालय के द्वार खटखटाने के विचार पर हमारी आत्मा ने सहमति नहीं दी। सहसा हृदय में यह भाव उदित हुए कि अदालत के द्वार पर मूडबिद्रीवालों को घसीटकर कष्ट देना योग्य नहीं है, कारण इनके ही विवेकी, धर्मात्मा तथा चतुर पूर्वजों के प्रयत्न और पुरुषार्थ के प्रसाद से ग्रन्थराज अब तक विद्यमान हैं, और अब भी वे यथामति उनकी सेवा कर ही रहे हैं। उनकी श्रुत-भक्ति तथा सेवा के प्रति कृतज्ञतावश हमारा मस्तक नम्र हो जाता है। यदि हम पुनः उनसे सस्नेह अनुरोध करेंगे और अपनी सद्भावनापूर्ण बात समझाएँगे, तो वे लोग अवश्य हमारी हृदय की ध्वनि को ध्यान से सुनेंगे। न मालूम क्यों, हृदय बार-बार यह कहता था कि प्रेम-पूर्ण प्रयत्न के पथ में ही सफलता है। यह सूक्ति महत्त्वपूर्ण है: “मृदुना दारुणं हन्ति, मृदुना हन्त्यदारुणम्। नासाध्यः मृदुना किञ्चित्, तस्मात् तीक्ष्णतरं मृदुः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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