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________________ महाबन्ध करके जगत् के समक्ष यह निधि अवश्य आनी चाहिए। तीर्थयात्रा से लौटते हुए उक्त सेठजी ने अपने हृदय की सारी बातें अपने अत्यन्त स्नेही सेठ हीराचन्द नेमचन्दजी सोलापुरवालों को सुनायीं। सेठ हीराचन्दजी के अन्तः करण में दक्षिणयात्रा की बलवती इच्छा हुई। अतः आगामी वर्ष वे मूडबिद्री के लिए रवाना हो गये। ब्रह्मसूरि शास्त्री नामक प्रकाण्ड जैन विद्वान् जैनबद्री (श्रमणवेलगोला) में रहते थे। वे इन शास्त्रों को बाँचकर समझा सकते थे। अतः सेठ हीराचन्द जी ने उक्त शास्त्रीजी को जैनबद्री से अपने साथ ले लिया था। जब ग्रन्थों का मंगलाचरण पढ़कर उनका अर्थ सुनाया गया, तब श्रोतृमण्डली को इतना आनन्द मिला कि उसका वाणी के द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता, कारण उन्हें साक्षात् जिनेन्द्र के वचनामृत के रसपान का सौभाग्य मिला। प्रतिलिपि का संरम्भ प्रवास से लौटने पर सेठ हीराचन्दजी के चित्त में ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराने की इच्छा हुई, किन्तु लौकिक कार्यों में संलग्नता के कारण बहुत समय व्यतीत हो गया और मन की बात कृतिका रूप धारण न कर सकी। इस बीच में धनकुबेर सेठ नेमीचन्दजी सोनी (अजमेर) पं. गोपालदासजी वरैया को साथ लेकर तीर्थयात्रार्थ निकले और मूडबिद्री पहुंचे। उनके प्रभाव तथा सत्प्रयत्न से स्थानीय व्यवस्थापक पंचमण्डली ने पं. ब्रह्मसूरि शास्त्री के द्वारा देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि कराने की स्वीकृति प्रदान की। अत्यन्त मन्दगति से कार्य प्रारम्भ किया गया और थोड़ी नकल मात्र हो पायी कि अन्तराय कर्म ने विघ्न उत्पन्न कर दिया। सेठ हीराचन्दजी के प्रयत्न से प्रतिलिपि निमित्त लगभग चौदह हजार रुपयों की समाज-द्वारा सहायता की व्यवस्था हुई। अतः ब्रह्मसूरि शास्त्री के साथ गजपति उपाध्याय महाशय मिरजनिवासी के द्वारा पूर्वोक्त स्थगित कार्य पुनः चालू हुआ। कुछ काल व्यतीत होने पर दुर्भाग्य से ब्रह्मसूरि शास्त्री का स्वर्गवास हो गया। अतः पं. गजपतिजी ही कार्य करते रहे। धवला और जयधवला टीकाओं की नकल लगभग १६ वर्षों में पूर्ण हो पायी। इस बीच में श्रीदेवराज सेट्टि, शान्तप्पा उपाध्याय और ब्रह्मराज इन्द्र ने कनड़ी भाषा में एक प्रतिलिपि कर ली। देवनागरी में प्रतिलिपि इधर गजपति उपाध्याय मूडबिद्री के सिद्धान्त मन्दिर में विराजमान करने के लिए देवनागरी लिपि में प्रतिलिपि करते थे, उधर गुप्त रूप से अपनी विदुषी धर्मपत्नी लक्ष्मीबाई के सहयोग से कनड़ी में भी एक प्रतिलिपि तैयार कर ली, जिसका किसी को रहस्य अवगत न था। वह प्रति उपाध्यायजी ने विशेष पुरस्कार लेकर परमधार्मिक स्वर्गीय लाला जम्बूप्रसादजी रईस (सहारनपुर) को प्रदान की। उन्होंने पं. विजय चन्द्रय्या और पं. सीताराम शास्त्री के द्वारा उस कनड़ी प्रतिलिपि से देवनागरी में जो प्रतिलिपि लिखवायी, उसमें सात वर्ष का समय व्यतीत हुआ। पं. विजयचन्द्रय्या से कनड़ी प्रति बँचवाकर सीताराम शास्त्री नकल करते थे। शीघ्र कार्य निमित्त सीतारामजी साधारण कागज पर पहले लिख लेते थे, पीछे लाला जम्बूप्रसादजी के भण्डार के लिए नकल करते थे। सीताराम शास्त्री ने अपने पास के साधारण कागज पर लिखी गयी नकल पर से अन्य प्रतिलिपि की। उसके आधार पर अन्य प्रतियाँ लिखाकर आरा, सागर, सिवनी, दिल्ली, बम्बई, कारंजा, इन्दौर, ब्यावर, अजमेर, झालरापाटन आदि स्थानों में पहुँचायी गयीं। इससे जयधवल और धवल शास्त्रों के दर्शन तथा स्वाध्याय का सौभाग्य अनेक व्यक्तियों को प्राप्त होने लगा। 'महाबन्ध' पर विशेष प्रतिबन्ध मूडबिद्रीवालों को अन्धकार में रखकर जिस ढंग से पूर्वोक्त दो सिद्धान्त शास्त्र मूडबिद्री से बाहर गये और उनका प्रचार किया गया, उससे मूडबिद्री के पंचों के हृदय को बड़ा आघात पहुँचा। मूडबिद्री की विभूति के अन्यत्र चले जाने से मूडबिद्री के प्रति आकर्षण कम हो जाएगा, यह बात भी उनके चित्त में अवश्य रही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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