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प्राक्कथन
जैन वाङ्मय में धवल, जयधवल, महाधवल (महाबन्ध) इन सिद्धान्त ग्रन्थों का अत्यधिक सम्मान और श्रद्धापूर्वक नाम स्मरण किया जाता है। ये परम पूज्य शास्त्र मूडबिद्री, दक्षिण कर्णाटक के सिद्धान्त मन्दिर के शास्त्रभण्डार को समलंकृत करते हैं। इन ग्रन्थरत्नों के प्रभाववश सम्पूर्ण भारत के जैन बन्धु मूडबिद्री को विशेष पूज्य तीर्थस्थल सदृश समझ वहाँ की वन्दना को अपना विशिष्ट सौभाग्य मानते हैं, और वहाँ जाकर इन शास्त्रों के दर्शनमात्र से अपने को कृतार्थ मानते हैं। भगवद्भक्त जिस ममत्व, श्रद्धा तथा प्रेमभाव से पावापुरी, चम्पापुरी सम्मेदशिखर, राजगिरि आदि तीर्थस्थलों की वन्दना करते हैं, प्रायः उसी प्रकार की समुज्ज्वल भावनाओं सहित उत्तर भारत के श्रुतभक्त श्रावक तथा श्राविकाएँ दक्षिण भारत के पश्चिम कोण में मंगलूर बन्दर के पार्श्ववर्ती मूडबिद्री की वन्दना करते हैं। उसे वे श्रुतदेवता की भूमि सोचते हैं। जिन व्यक्तियों को सिद्धान्त ग्रन्थों के कारण पूज्य मानी गयी मुडबिद्री को जाने का सौभाग्य नहीं मिला, वे उक्त स्थल की परोक्षवन्दना करते हुए उस सुअवसर की बाट जोहा करते हैं कि, वे कब वहाँ पहुँचकर अपने चक्षुओं को सफल कर सकें।
कहते हैं, ये सिद्धान्तशास्त्र पहले जैनबद्री-श्रमणवेलगोला के महनीय ग्रन्थागार को अलंकृत करते थे। पश्चात् ये ग्रन्थ मूडबिद्री पहुंचे। इन ग्रन्थों की प्रतिलिपि भारतवर्ष-भर में अन्यत्र कहीं भी नहीं थी। इन शास्त्रों का प्रमेय क्या है, यह किसी को भी पता नहीं था। बहुत लोग तो यह सोचते थे कि इन शास्त्रों में आधनिक वैज्ञानिक आविष्कार सदश चमत्कारप्रद एवं भौतिक आनन्दवर्धक सामग्री-निर्माण का वर्णन किया गया होगा। हवाई जहाज, रेडियो, टेलीफोन, ग्रामोफोन, सोना बनाना आदि सब कुछ इन शास्त्रों में होंगे। इस काल्पनिक महत्ता के कारण साधारण व्यक्ति भी श्रुतदेवता की वन्दना को सोत्कण्ठ सन्नद्ध रहते थे।
दुर्लभ दर्शन
ये ग्रन्थ अपनी महत्ता, अपूर्वता तथा विशेष पूज्यता के कारण बड़े आदर के साथ निधि अथवा रत्नराशि के समान सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखे जाते थे। जिस प्रकार विशेष भेंट लेकर भक्त गुरु के समीप जाता है, उसी प्रकार वन्दक व्यक्ति भी यथाशक्ति उचित द्रव्य-अर्पण करके ग्रन्थराज की वन्दना करता था। शास्त्रभण्डार खुलवाने के लिए द्रव्यार्पण आवश्यक था। सिद्धान्त मन्दिर मूडबिद्री के व्यवस्थापक लोग ही शास्त्रों पर अपना स्वत्व समझते थे, उनकी ही कृपा के फलस्वरूप दर्शन हुआ करते थे। शास्त्रों की एकमात्र प्रति पुरानी (हळेकन्नड) कनड़ी लिपि में थी, अतः उस लिपि से सुपरिचित तथा प्राकृत भाषा का परिज्ञाता हुए बिना ग्रन्थ का यथार्थ रस लेने तथा देनेवाला कोई भी समर्थ व्यक्ति ज्ञात न था। ग्रन्थ को उठाकर दर्शन करा देना और चोरों से या बाधकों से शास्त्रों को बचाना, इतना ही कार्य व्यवस्थापक करते थे। इसका फल यह हुआ कि अत्यन्त जीर्ण तथा शिथिल ताड़पत्र पर लिखे ग्रन्थों की पुनः प्रतिलिपि कराकर सुरक्षा की ओर ध्यान न गया, इससे दुर्भाग्यवश 'महाधवल'-'महाबन्ध' के लगभग तीन, चार हजार श्लोक नष्ट हो गये; किन्तु इसका पता किसी को भी नहीं हुआ।
जैन कुलभूषण श्रावकरत्न स्व. सेठ माणिकचन्दजी जे.पी. बम्बई से सन् १८८३ में वन्दनार्थ मूडबिद्री पहुँचे। वे एक विचारक दानी श्रीमान् थे। शास्त्रों का दर्शन करते समय उनकी भावना हुई कि ग्रन्थ को किसी विद्वान् से पढ़वाकर सुनना चाहिए, किन्तु योग्य अभ्यासी के अभाववश उस समय उनकी कामना पूर्ण न हो पायी। उनके चित्त में यह बात उत्कीर्ण-सी हो गयी कि किसी भी तरह इन शास्त्रों का उद्धार
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