________________
प्रस्तावना
३३ आचार्य रचित दो सौ तैतीस गाथाओं को जो विशेषता प्राप्त होगी, वह उनपर रची गयी बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण टीका को नहीं होगी। इसी दृष्टि से यदि धवला टीका पर भी प्रकाश डाला जाय, तो कहना होगा कि साठ हजार श्लोक प्रमाण टीका भी नौवीं सदी की है, प्राचीन अंश पाँच खण्डों के रूप में केवल छह हजार श्लोक प्रमाण हैं । 'महाबन्ध' ग्रन्थ की सम्पूर्ण चालीस हजार श्लोक प्रमाण रचना भूतबलि स्वामीकृत होने के कारण अत्यन्त प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार सबसे प्राचीन जैनवाङ्मय की दृष्टि से 'महाबन्ध' सूत्र की रचना धवला, जयधवला टीकाओं के मूल की अपेक्षा लगभग सातगुनी है। ब्रह्म हेमचन्द्र रचित श्रुतस्कन्ध में लिखा है
“सत्तरिसहस्सधवलो जयधवलो सट्ठिसहस्स बोधव्वो । महबंध चालीसं सिद्धंततयं अहं वंदे ॥”
'धवलशास्त्र सत्तर सहस्र प्रमाण है, जयधवल साठ हजार प्रमाण है तथा 'महाबन्ध' चालीस हजार प्रमाण है। इन सिद्धान्तशास्त्रत्रय की मैं वन्दना करता हूँ ।'
इन्द्रनन्दि ने 'महाबन्ध' को तीस हजार' कहा और ब्रह्म हेमचन्द्र चालीस हजार श्लोक प्रमाण बताते हैं । इस मतभेद का कारण यह विदित होता है कि सम्भवतः इन्द्रनन्दि ने 'महाबन्ध' में उपलब्ध अक्षरों की गणनानुसार अपनी संख्या निधारित की, ब्रह्म हेमचन्द्र ने 'महाबन्ध' के संक्षिप्त किये सांकेतिक अक्षरों को, सम्भयतः पूर्ण मानकर गणना की 'ओरालियसरीर' को 'महाबन्ध' में 'ओरा०' लिखा है। इसे इन्द्रनन्दि ने दो अक्षर माने और ब्रह्म हेमचन्द्र ने सात अक्षर रूप गिना । समस्त ग्रन्थ में पुनः पुनः प्रकृति आदि के नामों की गणना हुई है, इस कारण भूतबलि स्वामी ने सांकेतिक संक्षिप्त शैली का आश्रय लिया। अतः इन्द्रनन्दि और हेमचन्द्र की गणना में भिन्नता तात्त्विक भिन्नता नहीं है।
1
महाधवल - जैन समाज में 'महाबन्ध' शास्त्र 'महाधवल' जी के नाम से विख्यात है । 'महाबन्ध' नाम को पढ़कर कुछ लोग तो भ्रम में पड़ेंगे। यथार्थ में ग्रन्थ का नाम 'महाबन्ध' के अनुभागबन्ध खण्ड के अन्त की प्रशस्ति से प्रमाणित होता है । वहाँ लिखा है
"सकलधरित्री- विनुत-प्रकटितमधीशे मल्लिकच्चे वेरिसि सत्पुण्याकर- 'महाबन्ध' पुस्तकं श्रीमाघनंदिमुनिपतिगत्तल ।”
'यह 'महाबन्ध' भूतबलि स्वामी द्वारा रचित है, इस बात का निश्चय धवला टीका (सिवनी प्रति, पृ. १४३७ ) के इस अवतरण से होता है
I
"जं तं बंधविहाणं तं चउब्विहं पयडिबंधो, द्विदिबंधो अणुभागबंधो, पदेसबंधी चेदि एदेसिं चदुण्डं बंधाणं भूदबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्हेहि ति अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं । "
'धवला' टीका महाबन्धशास्त्र के रचयिता के रूप में भूतबलि का नाम बताती है 'महाबन्ध' नामका परिज्ञान पूर्वोक्त अनुभागबन्ध की प्रशस्ति से होता है; अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि इस महाबन्ध' के निर्माता भूतबलि स्वामी हैं इसी 'महाबन्ध' की 'महाधवल' के नाम से ख्याति है। संवत् १६१७ तक 'महाधवल' की प्रसिद्धि विदित होने का प्रमाण उपलब्ध है। कारंजा के प्राचीन शास्त्र भण्डार से प्रतिक्रमण नाम की एक पोथी है उसमें यह उल्लेख पाया जाता है
Jain Education International
"धवली हि महाघवलो जयधवलो विजयधवलश्च । ग्रन्थाः श्रीमद्भिरमी प्रोक्ताः कविधातरस्तस्मात् (?) ॥१३॥
१. प्रवरच्य महाबन्धायं ततः षष्ठकं खण्डम् त्रिंशत्सहस्रसूत्रं व्यरचयदसौ महात्मा ॥
- इन्द्र श्रुता. १३६
२. समस्त महाबन्ध गद्यमय रचना है। अनुष्टुप् छन्द के ३२ अक्षरों को एक श्लोक का माप मानकर समस्त ग्रन्थ की गणना की गयी। इसे ही श्लोकों के नाम से कहा जाता है। 'महाबन्ध' सूत्र छन्दोबद्ध रचना नहीं है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org