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________________ महाबन्ध धवल, जयधवल तथा 'महाधवल' के साथ 'विजयधवल' का नवीन उल्लेख है जो अनुसन्धान का विषय है। आगे लिखा है “तत्पट्टे धरसेनकस्समभव सिद्धान्तगः सेंशुभः (?) तत्पट्टे खलु वीरसेनमुनिपो यैश्चित्रकूटे परे। येलाचार्यसमीगं कृततरं सिद्धान्तमल्पस्य ये वाटे चैत्यवरे द्विसप्ततिमति सिद्धाचलं चक्रिरे ॥१४॥" संवत १६३७ आश्विनमासे कृष्ण पक्षे अमावस्यातिथौ शनिवासरे शिवदासेन लिखितम्। कवि वृन्दावनजी ने 'महाधवल' नाम प्रयुक्त किया है। पण्डितप्रवर टोडरमलजी की गोम्मटसार कर्मकाण्ड की टीका में भी 'महाधवल' नाम आया है। "तहाँ गुणस्थान विषै पक्षान्तर जो महाधवला का दूसरा नाम कषायप्राभृत (?) ताका कर्ता यतिवृषभाचार्य ताके अनुसार ताकरि अनुक्रम तें कहिए हैं।" 'कषाय प्राभृत' पर वीरसेनाचार्य ने जो "जयधवला' टीका लिखी है, उससे विदित होता है कि कषायपाहुड के गाथा सूत्रों पर यतिवृषभ आचार्य ने चूर्णिसूत्र बनाये थे। इसे पण्डित टोडरमलजी ने 'महाधवल' ग्रन्थ रूप में कह दिया। प्रतीत होता है, सिद्धान्तग्रन्थों का साक्षात्कार न होने के कारण 'कषाय-प्राभृत' का नामान्तर 'महाधवल' लिखा गया। 'महाधवल' नाम प्रचार का कारण यहाँ यह विचार उत्पन्न होता है कि 'महाबन्ध' शास्त्र का नाम 'महाधवल' प्रचलित होने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में यह विचार उचित अँचता है कि 'महाबन्ध' में भूतबलि स्वामी ने अपने प्रतिपाद्य विषय का स्वयं अत्यन्त विशद तथा स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन किया है। इसी कारण वीरसेन आचार्य अपनी 'धवला' टीका में लिखते हैं-इन चार बन्धों का विस्तृत विवेचन भूतबलि भट्टारक ने 'महाबन्ध' में किया है, अतएव हम यहाँ इस सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखते। 'महाबन्ध' के विशेषण रूप में 'महाधवल' शब्द का प्रयोग अनुचित नहीं दिखता। यह भी सम्भव दिखता है कि विशेष्य के स्थान में विशेषण ने ही लोकदृष्टि में प्राधान्य प्राप्त कर लिया हो। यह भी प्रतीत होता है कि परम्परा शिष्य सदृश वीरसेन, जिनसेन स्वामी ने अपनी सिद्धान्त शास्त्र की टीकाओं के नाम धवला, जयधवला रखे, तब स्वयं स्पष्ट प्रतिपादन करनेवाले गुरुदेव भूतबलि की महिमापूर्ण कृति को भक्ति तथा विशिष्ट अनुरागवश 'महाधवल' कहना प्रारम्भ कर दिया गया होगा। 'महाबन्ध' के 'महाधवल' नाम के बारे में सन् १६४५ में, चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर महाराज के समक्ष चर्चा करने का अवसर आया था। इस ग्रन्थ की प्रस्तुत हिन्दी टीका का आचार्य महाराज १. अग्रणीपूर्व के, पाँचवें वस्तु का, महाकरमप्रकृति नाम चौथा। इस पराभृत का, ज्ञान तिनके रहा, यहाँ लग अंग का, अंश तौ था॥ सो पराभृत्त को भूतबलि पुष्परद, दोय मुनि को सुगुरु ने पढ़ाया। तास अनुसार, षट्खण्ड के सूत्र को, बाँधि के पुस्तकों में मढ़ाया ॥४६॥ फिर तिसी सूत्र को, और मुनिवृन्द पढ़ि, रची विस्तार सों तासु टीका। धवल महाधवल जयधवल आदिक सु, सिद्धान्तवृत्तान्त परमान टीका। तिरुन हि सिद्धान्त को, नेमिचन्द्रादि आचार्य, अभ्यास करिके पुनीता। रचे गोमट्टसारादि बहुशास्त्र यह, प्रथम सिद्धान्त-उतपत्ति-गीता ॥४७॥ -श्रीप्रवचनसार-परमागम, कवि वृन्दावन, पृ. ६,७। २. एदेसिं चदण्हं बंधाणं विहाणं भूदबलिभडारएण महाबन्धे सप्पवंचेण लिहिदंति, अम्हेहि एत्थ ण लिहिदं"-ध.टी., सि. १४३७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001388
Book TitleMahabandho Part 1
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages520
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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