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प्रस्तावना
३५
ध्यानपूर्वक स्वाध्याय कर चुके थे, अतः ग्रन्थराज से प्राप्त परिचय के आधार पर आचार्य महाराज ने कहा या-सचमुच में यह ग्रन्थ 'महाधवल' है। बन्ध पर स्पष्टतापूर्वक प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र यथार्थ में महान है। बन्ध का ज्ञान होने पर ही मोक्ष का बराबर ज्ञान होता है। 'समयसार' पहले नहीं चाहिए। पहले 'महाबन्ध' चाहिए। पहले सोचो हम क्यों दुःख में पड़े हैं, क्यों नीचे हैं? तीन सौ त्रेसठ पाखण्ड मतवाले भी पूर्ण सुख चाहते हैं, किन्तु मिलता नहीं। हमें कर्मक्षय का मार्ग ढूँढ़ना है। भगवान ने मोक्ष जाने की सड़क बतायी है। चलोगे तो मोक्ष मिलेगा, इसमें शंका क्या?" यह 'महाबन्ध' शास्त्र वस्तुतः 'महाधवल' है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए आचार्य महाराज ने एक विद्वान् ब्राह्मण पुत्र की कथा सुनायी थी, जिसको उसके पिता ने, जो राजपण्डित था, अपने जीवन काल में अर्थकरी विद्या नहीं सिखायी थी; केवल इतनी बात सिखायी थी कि अमुक कार्य करने से अमुक प्रकार का बन्ध होता है। बन्धशास्त्र में पुत्र को प्रवीण करने के अनन्तर पिता की मृत्यु हो गयी। अब पितृविहीन विप्रपुत्र को अपनी आजीविका का कोई मार्ग नहीं सूझा। अतः वह धनप्राप्ति निमित्त राजा के यहाँ चोरी करने पहुंचा। उसने रत्न, सुवर्णादि बहुमूल्य सामग्री हाथ में ली तो पिता के द्वारा सिखाया गया पाठ उसे स्मरण आ गया कि इस कार्य के द्वारा अमुक प्रकार का दुःखदायी बन्ध होता है। अतः बन्ध के भय से उसने राजाकोष का कोई भी पदार्थ नहीं चुराया। उसे वापिस निराश लौटते समय मार्ग में भूसा मिला। भूसा के लेने में क्या दोष है, यह पिता ने नहीं सिखाया था, इसलिए वह भूसा का ही गट्ठा बाँधकर साथ ले चला। पहरेदारों ने उसे पकड़कर राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा ने पूछा-तुमने स्वर्ण, रत्नादि को छोड़कर भूसा की चोरी क्यों पसन्द की? तब ब्राह्मणपुत्र ने बताया कि मेरे पिताजी ने अपने जीवन में मुझे केवल बन्ध का शास्त्र पढ़ाया था। उसमें भूसा को लेने में दोष का कोई उल्लेख न पाकर मैंने उसे ही चुराना निर्दोष समझा। अपने राजपुरोहित के पुत्र को इतना अधिक पापभीरु देख राजा प्रभावित हआ और उसने उसको अत्यन्त विश्वासपूर्ण उच्च पद देकर निराकल कर दिया।” इस कथा को सुनाते हुए आचार्य श्री ने कहा-बन्धका ज्ञान होने से जीव पाप से बचता है, इससे कर्मों की निर्जरा भी होती है। बन्धका वर्णन पढ़ने से मोक्ष का ज्ञान होता है। बन्धका वर्णन करनेवाला यह शास्त्र वास्तव में 'महाधवल' है। इससे बहत विशद्धता होती है।"
'महाबन्ध' का अध्ययन बुद्धि का विलास या बौद्धिक व्यायाम की सामग्री मात्र उपस्थित करता है, यह धारणा अयथार्थ है। इस आगम रूप महान शास्त्र से आत्मा का वास्तविक कल्याणप्रद अमृत का निर्मल निर्झर प्रवाहित होता है। उसमें निमग्न होनेवाला मुमुक्षु महान शान्ति तथा आह्लाद को प्राप्त करता है। उसके असंख्यात गुणश्रेणी रूप कर्मों की निर्जरा भी होती है। - आचार्य यतिवृषभने 'तिलोयपण्णत्ति' में कहा है कि परमागम के अध्ययन-द्वारा अनेक लाभ होते हैं। उससे 'अण्णाणस्स विणासं' अज्ञान का विनाश होता है: 'णाणदिवायरस्स उप्पत्ती'-ज्ञान सर्य की प्राप्ति हो है तथा 'पडिसमयमसंखेज्ज-गुणसेढि-कम्मणिज्जरणं'-प्रतिक्षण असंख्यात गुणश्रेणी रूप कर्मों की निर्जरा होती है। (१, गाथा ३६, ३७)
इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि 'महाबन्ध' का परिशीलन विचारों को, बुद्धि को एवं आत्मा को धवल ही नहीं, महाधवल बनाता है। इस दृष्टि ने 'महाधवल' इस नाम के प्रचार में भी सहायता या प्रेरणा प्रदान की होगी।
'महाबन्ध' का परिशीलन तथा मनन करते समय यह बात समझ में आयी कि जब तक मनोवृत्ति पवित्र तथा निराकुल न हो, तब तक ग्रन्थ का पूर्वापर गम्भीर विचार नहीं हो पाता। महाधवल मनोवृत्तिपूर्वक 'महाबन्ध' का रसास्वादन किया जा सकता है, अतः इस मनोवृत्ति को लक्ष्य में रखकर भी यह 'महाधवल' नाम प्रचलित हो गया प्रतीत होता है। चारित्रचक्रवर्ती, मुनीन्द्र शांतिसागर महाराज ने जो यह कहा था कि सचमुच में 'यह ग्रन्थ महाधवल है', वह अक्षरशः यथार्थ है।
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