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महाबन्ध
'महाबन्ध' के अवतरण का इतिहास
कवि की कल्पना या विचारों के द्वारा जैसे काव्य की रचना होती है, उसी प्रकार यह 'महाबन्ध'-शास्त्र भूतबलि स्वामी के व्यक्तिगत अनुभव, विचार या कल्पनाओं की साकार मूर्ति नहीं है। इस ग्रन्थ का प्रमेय सर्वज्ञ भगवान महावीर स्वामी ने अपनी दिव्यध्वनि-द्वारा प्रकाशित किया था। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के प्रभात में विपुलाचल पर्वत पर सर्वज्ञ महावीर तीर्थंकर की कल्याणकारिणी धर्म-देशना हुई थी। उसे गौतमगोत्री चतुर्विध निर्मल ज्ञानसम्पन्न, सम्पूर्ण दुःश्रुति में पारंगत इन्द्रभूति ब्राह्मण ने वर्धमान भगवान् के पादमूल में उपस्थित हो सुना और अवधारण किया था। अनन्तर गौतम स्वामी ने उस वाणी की द्वादशांग तथा चतर्दश पूर्वरूप ग्रन्थात्मक रचना एक मुहूर्त में की 'एक्केण चेव मुहुत्तेण कमेण रयणा कदा' । उत्तरपुराण में गुणभद्र स्वामी ने कहा है कि अंगों की रचना पूर्वरात्रि में की गयी थी और पूर्वो की रचना रात्रि के अन्तिम भाग में की गयी थी:-'अंगानां ग्रन्थसन्दर्भ पूर्वरात्रे व्यधाम्यहम् । पूर्वाणां पश्चिमे भागे...' (७४-३७१, ३७२) इस सम्बन्ध में भगवान महावीर को अर्थकर्ता कहा गया है और गौतम स्वामी को ग्रन्थकर्ता। गौतम ने द्रव्यश्रुत की रचना की थी। तिलोयपण्णात्तिकार का कथन है
“इय मूलतंतकत्ता सिरिवीरो इंदभूदिविप्पवरो।
उवतंते कत्तारो अणुतंते सेसआइरया ॥ १,८० 'इस प्रकार श्री वीर भगवान् मूलतन्त्रकर्ता, विप्रशिरोमणि इन्द्रभूति उपतन्त्रकर्ता तथा शेष आचार्य अनुतन्त्रकर्ता हैं।
गणधर का व्यक्तित्व-इस द्वादशांग रूप परमागम का प्रमेय सर्वज्ञ भगवान् वर्धमान जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि से प्राप्त होने से वह प्रमाण रूप है। गणधर का भी व्यक्तित्व लोकोत्तर था। गौतम गणधर के विषय में 'जयधवला' में लिखे गये ये शब्द ध्यान देने योग्य हैं :
जो आर्य क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय-इन चार निर्मल ज्ञानों से सम्पन्न हैं, जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तप को तपा है, जो अणिमा आदि आठ प्रकार की वैक्रियिक लब्धियों से सम्पन्न हैं, जिनका सर्वार्थसिद्धि में निवास करनेवाले देवों से अनन्तगणा बल है. जो एक महर्त में अंगों के अर्थ और द्वादशांग रूप ग्रन्थों के स्मरण और पाठ करने में समर्थ हैं, जो अपने हाथरूपी पात्र में दी गयी खीर को अमृत रूप में परिवर्तित करने में या उसे अक्षय बनाने में समर्थ हैं, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है, जिन्होंने सर्वावधिज्ञान से समस्त पुद्गल द्रव्य का साक्षात्कार कर लिया है, जिन्होंने अपने तप के बल से विपुलमति मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न कर लिया है, जो सप्त प्रकार के भय से रहित हैं, जिन्होंने क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप कषायों का क्षय किया है, जिन्होंने पाँच इन्द्रियों को जीत लिया है, जिन्होंने मन, वचन तथा काय रूपी तीन दण्डों को भग्न कर दिया है. जो छहकायिक जीवों की दया पालने में तत्पर हैं, जिन्होंने कुलमद आदि अष्ट मदों को नष्ट कर दिया है, जो क्षमा आदि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत हैं, जो पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप अष्टप्रवचन मातृकाओं का पालन करते हैं, जिन्होंने क्षुधादि बाईस परीषहों को जीत लिया है और जिनका सत्य ही अलंकार है-“सच्चालंकारस्स"; ऐसे आर्य इन्द्रभूति के लिए उन महावीर भट्टारक ने अर्थ का उपदेश दिया। (जयधवला टीका भाग १, पृ. ८३, ७४)। ऐसी महनीय विभूति गुरु गौतम गणधर रचित होने से समस्त द्वादशांगवाणी पूज्य तथा विश्वसनीय है।
१. वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए।
अभिजीणक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स॥-ति.प. १६६ २. पुणो तेणिंदभूतिणा भावसुदपज्जयपरिणदेण बारहंगाणं चोद्दसपुव्वाणं च गंथाणमेक्केण चेव मुहत्तेण कमेण रयणा
कदा। तदो भावसुदस्य अत्थपदाणं च तित्थयरो कत्ता। तित्थयरादो सुदपज्जाएण गोदमो परिणदो त्ति दव्वसुदस्स गोदमो कत्ता। तत्तो गंथरयणा जादेत्ति।-ध. टी. १,६५
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